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गूलर के तांत्रिक औषधीय और धन प्रयोग

गूलर (फिकस रेसमोसा) फिकस कबीले का एक बड़ा पेड़ है। इसका उद्गम संस्कृत में शाखाओं से होता है जैसे उदुम्बर, बंगला में डमर, मराठी में उदुम्बर, गुजराती में उम्बरा, अरबी में जमीज़, फारसी में अंजायर अदमास्की। फल अंजीर की तरह गोल होते हैं और उसमें से सफेद दूध निकलता है। इसके पत्ते लोबदार पत्तियों की तरह होते हैं। नदी के उदुम्बर के पत्ते और फूल गूलर के पत्तों से छोटे होते हैं।

गूलर के 2 प्रकार हैं – उदुम्बर और कथुमार नदी। लकड़ी के पत्ते अंजीर के पत्तों से बड़े होते हैं। इसकी पत्तियों को छूने से हाथों में खुजली होती है और पत्तियों से दूध निकलता है।

विविध नाम :
उदुम्बर, उडुम्बर, कालस्कन्ध, जन्तुफल, पवित्रक, पाणिमुख।
पुष्पशून्य, पुष्पहीना, ब्रह्मवृक्ष, यज्ञसार, यज्ञफल, शीतफल, सदाफल,
सौम्य, हेमदुग्धक, हेमदुग्ध, क्षीरवृक्ष ।
सामान्य परिचय :
सामान्य जनता इसे बहुत ही साधारण और अनुपयोगी समझके ।
लेकिन सच्चाई तो यह है कि- यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण :
उपयोगी
गूलर एक सर्वसुलभ वृक्ष है, जो कहीं भी देखा जा सकता है।
वृक्ष
स्वरूप :
यह भारी-भरकम होता है । गूलर में झरबेरी के बराबर फल
लगते हैं जो क्रमश: बढ़ते हुये नीबू के बराबर तक हो जाते हैं। मे
फल कच्ची अवस्था में हरे और पकने पर
लाल हो जाते हैं । पर्क फल- मीठे, पौष्टिक,
ठण्डे और पाचक होते हैं । लेकिन यहाँ पर
सावधानी रखने की बात यह है कि- प्राय:
छोटे-छोटे उड़ने वाले पतंगा (भुनगे) – गूलर
के फलों में छेद करके उसके अन्दर तक घुस
जाते हैं और उसका रस चुसा करते हैं । अतः
गूलर खाने वाले को यह सावधानी बरतनी पडती है कि वे छेदार फल
न लें । कोई भी फल खाने के पहिले उसे तोडकर भीतर भली -भाँति
देख लें कि- कहीं उसके अन्दर कोई पतंगा तो नहीं बैठा है । यदि
पतंगा बैठा हुआ है तो उसे निकालकर फेंक दें और तब ही उस फल
को खायें । कच्चे गूलर में पतिंगे नहीं होते हैं । बहुत से लोग कच्चे
गूलर की पकौड़ी बनवाकर बड़े चाव से खाते हैं ।

गुण-धर्म
इसकी लकड़ी जल में सड़ती नहीं है, अतः कुँआ बनवाने वाले
लोग इंटों की दीवार खड़ी करने वे पूर्व आधार रूप में नींव के स्थान
पर गूलर की लकड़ी का एक गोल पहिया जैसा बिठा देते हैं- उसी के
ऊपर ईंटे जमाकर गोलाकार दीवार खड़ी की जाती है । इस प्रकार नींव
में पड़ी गूलर की वह लकड़ी बहुत-बहुत लम्बे समय तक पानी में पड़ी रहने पर भी सड़ती नहीं है

गूलर शांत, हाइजीनिक, अल्सरेटिव, रूखी, कसैला, भारी, मीठा, ऑस्टियोपोरोसिस और रंजक को तेज करता है; यह कफ, दस्त और योनि रोगों को नष्ट करने के लिए उपयोगी है।

     गूलर की छाल – बेहद ठंडी, स्तनपान कराने वाली, कसैले, जन्म नियंत्रण और कीटाणुनाशक होती है।

     कोमल फल – स्तम्भन, कसैला, लाभकारी और तृषा पित्त-कफ और रक्तशोधक होता है।

     मध्यम निविदा फल – बेस्वाद, ठंडा, कसैला, पित्त, तृषा, मोहक और इमेटिक और ल्यूकोरिया विनाशकारी हैं।

     तरुण फल – कसैला, रुचिकारक, अम्ल, दीपक, मांस-वर्धक, रक्त-नाशक और दोषरहित।     पका फल – कसैला, मीठा, सिंदूर, जड़, लाभकारी, अत्यंत शीतल, कफनाशक और रक्तवर्धक, पित्त, दाह, अप्स, तृषा, श्रम, प्रभु शोक और मूर्छा।


तान्त्रिक प्रयोग :
दत्त-साधना करने के लिये- ‘गूलर’ की लकड़ी हवन में
प्रयुक्त होती है । दत्त-साधना (भगवान दत्तात्रेय की उपासना) में
गूलर-वृक्ष के नीचे जप करने तथा हवन में गूलर की लकड़ी का प्रयोग
भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) का
मंयक्त रूप माना जाता है । दत्त भगवान की उपासना- बहुत जल्दी
और निश्चित फल देती है । सबसे पहले ऐसा गूलर का पेड़ देख लें
जहाँ पर जाकर आप प्रतिदिन साधना कर सकें । उस पेड के नीचे
बैठने का स्थान भी बना ले । फिर यह साधना ‘रविपुष्य’ योग के दिन
में प्रारम्भ करें । सबसे पहले अपने घर के पूजा-स्थान में- भगवान
दत्तात्रेय की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें और उनकी- श्वेत चन्दन,
श्वेत पुष्प और केतकी गन्ध (केवड़े के इत्र) से पूजा करें । फिर
गुलर-वृक्ष के नीचे जायें और वहाँ पूर्व दिशा की ओर मुँह करके बैठ
जायें और इस मन्त्र का जप करें- ॐ द्रां दत्तात्रेय नमः । इस मन्त्र
करने से मनोकामना शीघ्र ही पूरी हो जाती है ।
को ग्यारह माला का जप करना चाहिये ।
लगातार इक्कीस दिनों तक साधना करने से
इस प्रकार सिद्धि और चमत्कारी लाभ प्राप्त होता है ।
धन-वद्द्धक प्रयोग– ‘रविपुष्य’ के दिन, प्रातः शुभ-मुहूर्त में
गूलर की जड़ ले आयें । घर लाकर इसे विधिवत् स्नान करायें और
फिर इसकी धूप-दीप से पूजा करें । उस पर- सिंदूर, कपूर, लौंग,
इलायची, सिक्का आदि चढाना चाहिये । पूजन के उपरान्त निम्नलिखित
मन्त्र का 11 माला जप करें- ॐ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।
जप के पश्चात् यही मन्त्र पढ़ते हुये 21 आहुतियाँ देकर हवन करें और किन्हीं एक-दो गरीब बालक या बालिका का भोजन-दक्षिण दें । उसके बाद में- उक्त जड़ को लाल कपड़े में बाँधकर, वही
पढ़ते हुये उसे तिजोरी में रख दें । कपड़े में लपेटते समय उस पर
सभी वस्तुयें ज्यों-की-त्यों चढ़ी रहनी चाहिये, इन्हें हटायें नहीं बल्कि
कपड़े में लपेट दें ।
यह पोटली- जिस घर में रहेगी, वहा धन-सम्पत्ति की निरन्तर
वृद्धि होती रहेगी । सुविधा-सामर्थ्य हो तो उस जड़ का एक टुकड़ा,
कपड़े में लपेटकर- ताबीज में भरकर रखें । इस ताबीज को पहनने या
अपने पास रखने से साधक को कभी धनाभाव नहीं होता है । यह
बहुत ही सरल प्रयोग है- आस्थावान् साधक इसको साधना से लाभ
उठा सकते हैं ।
सुख-शान्ति के लिये- पूर्व-वर्णित विधि से तैयार पोटली को
अपने घर के पूजा-स्थान पर रखें और उसकी प्रतिदिन धूप-दीप से
पूजा करते रहें । यह प्रयोग सभी प्रकार से मंगलदायी होता है । इससे
मनुष्य को सुख-शान्ति और समृद्धि प्राप्त होती है।
सन्तान-सुख- जिन घरों में सन्तान न होती हो या होकर
जीवित न रहती हो, रोगी रहती हो, उपद्रवी स्वभाव की हो तो- गूलर
की जड़ को लाकर उसकी उपरोक्त विधि से पूजा करें और उस पोटली
को अपने घर के पूजा-स्थान में रख दें । फिर प्रतिदिन धूप-दीप
उसकी पूजा करते रहें और इस मन्त्र का एक माला जप करें-

ॐ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।
फिर उसके आगे शीश झुकाकर सन्तान-सुख की कामना करें ।
इस प्रयोग से सन्तान-सुख अवश्य प्राप्त होता है ।
प्रेम और सम्मोहन के लिये- ‘रविपुष्य’ योग में गूलर की जड़
लायें और उपरोक्त विधि से उसकी पूजा करें । उसके बाद में उसे
चन्दन की भाँति घिसें और वह लेप माथे पर लगायें । ऐसा लेप (माथे
पर लगाया गया तिलक) व्यक्ति में कुछ ऐसा प्रभाव उत्पन्न कर देता
है कि वह सर्वत्र- प्रेम, प्रशंसा और स्नेह का पात्र बन जाता

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