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भानु अप्सरा और अप्सरा लोक के दर्शन भाग 9

भानु अप्सरा और अप्सरा लोक के दर्शन भाग 9

नमस्कार दोस्तों धर्म रहस्य चैनल पर आपका एक बार फिर से स्वागत है। भानु अक्षरा और अप्सरा लोग के दर्शन भाग 9 के विषय में आज के इस वीडियो के माध्यम से जानेंगे तो चलिए पढ़ते हैं इनके पत्र को –

ईमेल पत्र-

गुरुजी और चैनल के सभी भाई और बहनों को मेरा प्रणाम| आज मैं आप सभी को आदिपराशक्ति मा कालिका के दिव्य परमधाम के बारे में बताऊंगा, जो मुझे भानू ने बताए थे| पर पहले मेरे पिछले वीडियो के कमेंट में किए गए प्रश्न के बारे में बताता हूं| किसी ने कमेंट किया था की अपने पिछले जन्म मे किए गए साधना और सिद्धियों के बारे में कैसे पता लगा सकते हैं? तो इसके लिए आप सभी सप्नेश्वरी देवी की साधना कर सकते हैं| देवी स्वप्नेश्वरी की साधना से आप लोग सपने के माध्यम से अपने पूर्व जन्म, अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य से जुड़ी हुई कोई भी बातें, या फिर आप लोग और जो कोई भी प्रश्न के उत्तर चाहते हो, सब कुछ जान सकते हैं| देवी स्वप्नेश्वरी सपने के माध्यम से आपको उत्तर दे देंगी| यहां तक की आप लोग अपनी अपनी इष्ट देव और इष्ट देवी के सप्न माध्यम से दर्शन भी इस साधना से कर सकते हैं| यह साधना बहुत ही आसान है, कोई भी कर सकते हैं| यूट्यूब में  स्वप्नेश्वरी देवी साधना नाम से सर्च करने पर आप सभी को इस साधना के बहुत से वीडियोस मिल जाएंगे और गूगल मे इस नाम से सर्च करें तो स्वप्नेश्वरी देवी के फोटो भी आपको मिल जाएगी|
 अब मैं मा के धाम के बारे में बताता हूं| तो जिस दिन भानु ने मुझे दुर्गा धाम के बारे में बताया था, उससे ठीक 2 दिन बाद जब वह फिर से मुझसे मिलने आई थी, तब रात के समय सोने से पहले मैंने फिर से भानु से कालीधाम के बारे में पूछा| वह बड़ी ही धैर्य के साथ बोलती रही और मैं अपनी डायरी में सब कुछ लिखता रहा| भानु बोली की, पराभगवती कोटीब्रम्हांडनायिका मा दक्षिणाकाली तो इन कोटि कोटि ब्रह्मांडो की जननी है| ठिक जिस प्रकार हर एक प्राणी अपने जन्म से पहले अपने मा के उदर मे रहते है और फिर मातृदेह की योनी भाग सेे संसार मे जन्म लेते है, ठिक उस ही तरह पराभगवती दक्षिणाकाली अपने उदर मे  इस पूरे विश्व को धारण करती है, और उनके दिव्य शरीर की योनि भाग, जिसे ब्रह्मयोनि कहते है, उस ब्रह्मयोनि से ही विश्व का जन्म होता है| और इसके साथ साथ वह एक ही क्षण में इन ब्रह्मांडो के अंदर और बाहर, दोनों स्थानो में निवास करती है| तो आदिमहाविद्या मा दक्षिणाकाली हमारे ब्रह्मांड के अंदर तुम्हारी इस पृथ्वी लोक के समस्त शक्तिपीठों में विभिन्न शक्तिदेवियों का स्वरूप धारण करके निवास करती है| दुर्गा, तारा, जगद्धात्री, त्रिपुरासुंदरी, भैरवी, अन्नपूर्णा, चंडी आदि जितने भी शक्तिदेवीओ कि उपासना हम लोग करते हैं, वह सब इन पूर्णब्रह्ममयी दक्षिणाकाली देवी के ही विभिन्न स्वरूप है| पर तुम्हारी पृथ्वी लोक मे मां काली विशेष रुप से जहां निवास करती है, वह है जम्वूद्वीप के भारतखंड अर्थात भारत भूमि का बंगदेश| तब मैंने पूछा, बंगदेश? मतलब हमारे भारतवर्ष का यह बंगाल? जहां मैं रहता हूं? तब भानु ने हंसते हुए बड़े ही प्यार से बताया की, हां प्रकाश, तुम्हारा यही बंगाल, जहां तुम रहते हो| ब्रह्मयामल नामक तंत्रशास्त्र में एक श्लोक मिलता है कि, “कालिका बंगदेशे च:”, मतलब देवी कालिका इस बंगाल के क्षेत्र में निवास करती है| पृथ्वी लोक में यह बंगाल का क्षेत्र मां काली को सबसे प्रिय है|
तो तुम्हारे इस बंगदेश मे जो कालीघाट नामक सतीपीठ है, यही है मां का निवास| कालीघाट तीर्थ के उत्तर दिशा में दक्षिणेश्वर नामक स्थान से शुरू करके, कालीघाट तीर्थ के दक्षिण दीशा में बहुलापुरी नामक जो दो क्रोस की लंबाई वाला धनुष के आकार का स्थान स्थित है, यही कालीक्षेत्र है| तब मैंने अपने मोबाइल में कलकत्ते का एक मैप निकाला और भानु से कहा कि तुम जो बोल रही हो वह मुझे इस मैप मैं दिखाओ| तब भानू ने जिन दो जगह पर अपनी उंगलिया रखी, वह थे कालीघाट के उत्तर मे दक्षिणेश्वर और कालीघाट के दक्षिण में बेहाला| मतलब अगर आप सभी कलकत्ते का मैप चेक करेंगे तो समझ पाएंगे की उत्तर में दक्षिणेश्वर से लेकर बीच में कालीघाट से होते हुए दक्षिण में बेहाला नाम से जो जगह है वह करीब-करीब एक धनुष के आकृति में ही है| अब भानु ने फिर से बोलना शुरू किया कि, दो क्रोस की लंबाई वाले इस धनुषाकार कालीक्षेत्र के अंदर कालीघाट सतीपीठ के चारों तरफ एक क्रोस की लंबाई वाले त्रिकोणाकार स्थान की 3 प्रांत बिंदुओं मे त्रीगूणात्मक ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रदेव का निवास है और ठीक मध्य में महाकाली देवी विराजमान है| अब महाकाली के साथ इस स्थान में जहां पर नकुलेश्वर भैरव और पुण्यसलिला गंगा देवी विराजमान है, वह स्थान महा पुण्यक्षेत्र कहलाता है| भैरवी, बगला, विद्या, मातंगी, कमला, ब्राह्मी, माहेश्वरी और चंडी, यह सब देविया हर पल इस कालीक्षेत्र मे निवास करती है| महादेव के काशीधाम और मां काली के इस कालीक्षेत्र में कोई भेद नहीं| काशीक्षेत्र के अनुरूप, इस कालीक्षेत्र में भी अगर देवता, दानव, मनुष्य, पशु, पक्षी, यहां तक की कीट-पतंग भी अपना शरीर त्याग दें तो परममुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं| इसलिए स्वयं स्वर्गवासी देवता भी यहां पर देहपात की इच्छा रखते हैं|
 अब मैं तुम्हें हमारे ब्रह्मांड के बाहर स्थित पराभगवती मा दक्षिणाकाली के अविनाशी दिव्य परमधाम के बारे में बताती हूं| पिछले दिन मैंने तुमको शिवलोक, गौरीलोक, बैकुंठलोक, गोलोक आदि इन सब लोको से 50 करोड़ योजन की ऊंचाई पर देवी तांत्रिक दुर्गा, मतलब देवी जगतधात्री महादुर्गा की जिस  परमलोक के बारे में बताया था, वह स्थान देव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नरगनो के लिए दुर्गम्य है| अब तांत्रिक दुर्गा के उस लोक के ठीक बगल में ही मां दक्षिणाकाली का परमधाम स्थित है| मां काली का यह गुप्त परमरम्य और परमसुंदर स्थान ब्रह्मादी त्रिदशपतिगणो के लिये भि परम दुर्गम है| समस्त संसार में सिर्फ पार्वतीनाथ शिवशंभू को छोड़कर और किसी को भी भगवती के इस परमधाम तक जाने का मार्ग नहीं पता| स्वयं ब्रह्मदेव और भगवान विष्णु को भी नहीं| आदि काल में जब ब्रह्मा और विष्णु को भगवती दक्षिणाकाली के धाम मे जाने की जरूरत पड़ी थी, तब उन्हें महादेव के शरण में ही आना पड़ा था और महादेव ही उन्हें भगवती के धाम मे ले गए थे| मां का यह स्थान सुंदर सुधामय महासमुद्र द्वारा परिवेस्टित है| उस सुधासागर के मध्य में मूल्यवान रत्नों से जड़े हुए ऊंचे ऊंचे दीवारों से घिरा हुआ एक रम्य पुरी विद्यमान है जो कि बहूमूल्य रत्नों से निर्मित और जलती हुई अग्नि के समान उज्जवल है| उस दिव्य पुरी के चारों तरफ चार विशाल द्वार है जो मुक्ताजालो से सजे हुए और अनेक ध्वजायो से अलंकृत है| विचित्र खटवांगधारी और रक्तवर्ण नेत्रों से युक्त सहस्त्र सहस्त्र भैरवगण हर पल उन द्वारों की रक्षा करते हैं| ब्रह्माविष्णु आदि प्रमुख देवगन भी पराभगवती दक्षिणाकाली के बिना आज्ञा के वहां पर प्रवेश नहीं कर पाते हैं| अब इन चार विशाल द्वारों से अंदर की तरफ उस दिव्य पुरी के उत्तर दिशा में बहुत से सुंदर सुंदर फूल और भ्रमरो से शोभित एक दिव्य पारिजातवन है|
उस वन मे नित्य वसंत का ऋतु विद्यमान है और वहां पर हर पल मनमोहक सुगंध से युक्त शीतल वायु बहती रहती है| ब्रह्माविष्णु आदि प्रमुख देवगन उस पारिजात वन मे सुंदर और प्यारी प्यारी पक्षियों का शरीर धारण करके मधुर स्वर में माता दक्षिणाकाली के गूण कीर्तन और भक्तिगीत गाते रहते हैं| महाकाली के इस दिव्य धाम के पूर्व दिशा में एक सुरम्य सरोवर है| सरोवर के अंदर स्वर्ण वर्ण कमल के फूल और सरोवर के चारों तरफ की भूमि पर अनेक सुंदर सुंदर फूल खिले रहते हैं| सरोवर के अंदर उतरने वाली सीढ़ियों में बहुत से रत्न जड़े हुए रहते हैं और उस स्थान में चारों तरफ सुंदर मधुमक्खियां घूमते रहते हैं| अब इस दिव्य धाम के मध्य में चार विशाल द्वारो से युक्त ऊंचे दीवारों से घिरा हुआ एक और पूरी विद्यमान है जिसकी द्वारों की रक्षा सहस्त्र सहस्त्र भैरव करते हैं| इस दीवार के बाहर चारों तरफ कोटि कोटि इंद्रादी त्रिदशपतिगण महाकाली के दर्शन पाने के लिए ना जाने कितने कल्पो से ध्यानमग्न अवस्था में रह रहे हैं| इस दीवार के अंदर चार विशाल द्वार और रत्नमय दीवारों से घिरा हुआ एक और पूरी स्थित है, जीस पूरी में माता के कामाख्या आदि योगिनी शक्तियां निवास करती है| देवी के प्रमुख गणनायको द्वारा यह पूरी रक्षित है और इस दीवार के बाहर चारों तरफ कोटि कोटि ब्रह्मांडोके कोटि कोटि ब्रह्मा, भगवती के दर्शन की इच्छा से ध्यानमग्न अवस्था में बैठे रहते हैं| अब योगिनी शक्तियों के इस पूरी के मध्य भाग में सुवर्ण वेस्टित, शत शत मणिस्तंभमय, रत्नों से निर्मित और अनेक ध्वजायो से युक्त पराभगवती दक्षिणाकाली का सूरम्य देवी मंदिर स्थापित है| इस देवी मंदिर की मुख्य द्वार पर देवीपुत्र महाबाहु गणेश द्वाररक्षक के रूप में रहते हैं| देवीपुत्र श्री गणेश सिर्फ और सिर्फ माता की आज्ञा का पालन करते हैं और इनकी सहमति के बिना कोई भी माता के अन्त:पुर मे प्रवेश नहीं कर सकता, चाहे वह स्वयं त्रिदेव ही क्यों ना हो| मंदिर के अन्त:पुर के मध्य भाग में विचित्र मणिमंडप के ऊपर महासिंह की मूर्तियों से युक्त देवि का महा विशाल रत्नसिंहासन स्थित है| इस सिंहासन के ऊपर महादेव का एक विशाल स्वरूप शवासन की मुद्रा में लेटे हुए अवस्था में रहते हैं, ठीक जैसा हमें मां काली के चरणों के नीचे देखने को मिलता है| महादेव के इस स्वरूप को शवरूपीशिव, या फिर पर:शिव कहते हैं| पर:शिव के शरीर का रंग शुद्ध स्फटीक के समान उज्जवल श्वेतवर्ण है|
पर:शिव के मस्तक के ऊपर विशाल जटा-जूट और अर्धचंद्र, एवं ललाट पर सुंदर त्रिनेत्र है| उनके दो कमल पुष्प के समान सुंदर हाथ है और वह संपूर्ण रुप से दिगंबर है| परमानंद की अवस्था मे रहने वाले पर:शिवरूपी इन विशाल शवासन के ऊपर कोटी कोटी ब्रम्हांडो के सृष्टि-स्थिति-संहारकारिणी आदिमहाविद्या पराभगवती दक्षिणाकाली बैठी रहती हैं| देवी का स्वरूप महा भयंकर है| मा के परमदिव्य शरीर का रंग काजल के समान घना काला है| मां के मस्तक के ऊपर बड़े-बड़े खुले हुए केश और उत्तम रत्नों से युक्त अग्नि के समान उज्जवल मुकुट, चेहरे पर भीमकाय तिन उज्जवल नेत्र, मुख में भयानक दांत और मुख से बाहर की तरफ विशाल लोलजिह्वा निकला हुआ रहता है| आदिमहाविद्या पराभगवती पूर्ण रूप से दिगंबरी है और उनका दिव्य शरीर अनेक प्रकार की दिव्य रत्नों और गहनों से विभूषित है| मां के गले में 50 संख्यक मानव मुंड से निर्मित विशाल मुंडमाला विद्यमान है| भगवती अपने चार हाथों में से, बाई तरफ की ऊपर के हाथ में एक चंद्रहास नामक ज्ञानखर्ग और नीचे के हाथ में कटा हुआ मानव का मुंड, एवं दाएं तरफ की ऊपर के हाथ में अभय मुद्रा और नीचे के हाथ में वर मुद्रा धारण किए हुए रहती है| कोटी सूर्य के समान प्रभावान और प्रलयाग्नि तुल्य जगन्माता के देह से निकल रही तेज और ज्योति इतनी तीव्र है की जगदंबा के स्वरूप को ठीक तरह से देख पाना बहुत कठिन है|  देवीसिंहासन के शवासन के ऊपर ही, देवी के दक्षिण भाग में कालीकापति महाप्रभु परमशिव  विराजमान रहते हैं, जिनका नाम महाकालेश्वर है| परमशिव महाकाल अपनी शक्ति पराभगवती दक्षिणाकाली की सहायता से कोटि कोटि ब्रह्मांडो के सृष्टि-स्थिति-लय एवं जीवो के तिरोभाव और उन पर अनुग्रह करने का यह जो पांच प्रबल कार्य है, वह अकेले ही करते हैं|  परमशिव महाकाल स्वयं अनादि पुरुष है|  महाकाल का स्वरूप महा भयंकर है और उनके दिव्य शरीर का रंग काजल के समान घना काला है| महाप्रभु के मस्तक के ऊपर विशाल जटा-जूटरूपी मुकुट और अर्धचंद्र, चेहरे पर तिन भीमकाय नेत्र और मुख में भयानक दांत है|
परमशिव के गले में नागराज वासुकी की माला एवं मुंडमाला रहती है और उनका पूरा शरीर शम्शान भूमि के भस्म से विभूषित रहता है| परमेश्वर अपने दोनों हाथों में से बाई तरफ के हाथ में एक कपाल पात्र और दाएं तरफ के हाथ में एक खटवांग(मतलब की एक  महादंड, जिसके ऊपर मनुष्य के कपाल की हड्डी स्थापित रहती है) वह धारण करते हैं| कोटि कोटि सूर्य के समान प्रचंड तेजधारि महाकालेश्वर वस्त्र के रूप में बाघ की छाल धारण करते हैं और वह सदैव परमानंद की अवस्था में निवास करते हैं| परमेश्वरी पराशक्ति दक्षिणाकाली सदैव अपने स्वामी परमशिव महाकाल के साथ पुलकित मन से रमन करती है| जया और विजया महादेवी के सिंहासन के दोनों तरफ खड़े होकर रत्नदंड से युक्त चामड़ के माध्यम से भगवती और परमेश्वर को शीतल वायु प्रदान करते हैं| जया और विजया आदि चौसठ योगिनीया देवी के अन्त:पुर में सदैव माता के परिचारिका रूप में विद्यमान रहती है और अन्त:पुर के समस्त कार्यों को करते हुए शिव शक्ति की सेवा करते हैं| पराभगवती दक्षिणाकाली का भैरवगणाभीवंदित यह अन्त:पुर अति आश्चर्यपूर्ण सौंदर्यमय है और ब्रह्मादि देवगनोके भी सूदुर्लभ है| तो ठीक जैसे परब्रह्ममयी देवी तांत्रिक महादुर्गा के परमलोक के बगल में आदिमहाविद्या मा दक्षिणाकाली का परमधाम स्थित है, ठीक वैसे ही बाकी समस्त महाविद्याओं के अलग-अलग परमधाम वहीं पर एक के पास एक स्थित है| और इन बाकी के लोको में भी भगवान परमशिव, प्रत्येक महाविद्या देवियों के दक्षिण भाग में अलग-अलग स्वरूप धारण करके निवास करते हैं| इस प्रकार से भगवान परमशिव अलग-अलग रूपों में, पराशक्ति के अलग-अलग महाविद्या स्वरूपों के साथ रमन करते हैं|
  अब मैंने भानु से पूछा की, क्या महाविद्याओं की संख्या केवल 10 होती है? या फिर उससे भी अधिक महाविद्याये हैं? तब उसने बताया कि कुल 7 करोड़ की संख्या में महाविद्याये होती है और उनकी उपविद्याओ की संख्या भी वैसी ही है| परात्परा भगवती दक्षिणाकाली के इन महाविद्याओं की संख्या नहीं गिनी जा सकती| फिर मैंने बोला कि मुझे उन बाकी के महाविद्याओं के बारे में भी कुछ बताओ| तब भानू ने बोलना शुरू किया की, 10 महाविद्याओं के साथ अगर और 2 महाविद्याओं को जोड़ा जाए तो द्वादश महाविद्याये होती है, जिनके नाम है, काली, तारा, त्रिपुरासुंदरी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला, तांत्रिक महादुर्गा और अन्नपूर्णा| अर्थात पिछले दिन मैंने तुमको जिन देवी तांत्रिक महादुर्गा मतलब जगतधात्री के बारे में बताया था, वही है 11वीं महाविद्या और काशी क्षेत्र में पूजित देवी अन्नपूर्णा है 12वीं महाविद्या| अब अगर 10 महाविद्याओं के साथ और भी 8 महाविद्याओं को जोड़ा जाए तो अष्टादश महाविद्याये होती है, जिनके नाम है काली, तारा, छिन्नमस्ता, मातंगी, भुवनेश्वरी, अन्नपूर्णा, नित्या, महिषमर्दिनीदुर्गा, त्वरिता, त्रिपुरा, पूटा, भैरवी, बगलामुखी, धूमावती, कमला, सरस्वती, जयदुर्गा और त्रिपुरासुंदरी| महाविद्या त्रिपुरासुंदरी को तांत्रिक पार्वती कहते हैं और महाविद्या त्वरिता को कहते हैं तांत्रिक मनसादेवी| जब की मातंगी को तांत्रिक सरस्वती कहते हैं और कमला महाविद्या को तांत्रिक लक्ष्मी| अब अगर 10 महाविद्याओं के साथ और भी 22 महाविद्याओं को जोड़ा जाए तो  द्वात्रिंश महाविद्याये होती है, जिनके नाम है काली, तारा, अन्नपूर्णा, नित्या,वाग्वादिनी सरस्वती, शाकम्भरी, श्मशानकाली, महासरस्वती, बाला, विशालाक्षी, एकवीरा, भ्रामरी, वज्रतारिणी, कामाख्या, शैलपुत्री, महात्रिपुरासुंदरी, चामुंडा, तांत्रिक महादुर्गा, शिवा, वज्रप्रस्तारिणी, भैरवी, भुवनेश्वरी, धूमावती, छिन्नमस्ता, बगलामुखी, मातंगी, रेवती, राधा, महालक्ष्मी, महिषमर्दिनी, कुमारी और मधुमति| यह 32 महाविद्याये भी 10 महाविद्या स्वरूपा है| ऐसे ही धीरे धीरे परात्परा भगवती दक्षिणाकाली के इन महाविद्या स्वरूपो की संख्या बढ़ते हुए 7 करोड़ तक पहुंचती है|
इस तरह परात्परा दक्षिणाकाली ही तांत्रिक महादुर्गा, महिषमर्दिनिदुर्गा, तारा, त्रिपूरासुंदरी, भुवनेश्वरी, बगलामुखी, भैरवी आदि समस्त महाविद्या स्वरूपों के रूप में विचरण करती है| भगवती महाकाली के हर एक महाविद्या स्वरूपों को संगति प्रदान करने के लिए परमशिव आदिनाथ महाकालेश्वर, हर एक महाविद्या के साथ अलग-अलग परमशिव का स्वरूप धारण कर लेते हैं| फिर मैंने पूछा की अब मुझे यह जो द्वादश महाविद्याये हैं, इनके स्वामीरूपी परमशिवो के नाम बताओ, तब भानु बोली की, जैसे ब्रह्मस्वरूपा दक्षिणाकाली स्वयं ही अपने दक्षिण भाग में अपने स्वामी आदिनाथ परमशिव महाकालेश्वर का स्वरूप धारण कर लेती हैं, ठीक वैसे ही उनकी हर एक महाविद्या भी वैसी ही करती है| दक्षिणाकाली के स्वामीरूपी परमशिव का नाम महाकालेश्वर, भगवती ताँरा के स्वामी सद्योजात महाकालेश्वर, त्रिपुरासुंदरी के पंचवक्त्र ललितेश्वर जिन्हें कामेश्वर भी कहते हैं और मां भुवनेश्वरी के स्वामी है त्रम्बक भुवनेश्वर| वैसे ही भैरवी के परमशिव है दक्षिणामूर्ति, छिन्नमस्ता के कालरूद्र कवन्धशिव, धूमावती के महाअघोरेश्वर, बगलामुखी के एकवक्त्र महारुद्र, मातंगी के मातंग, कमला के विष्णुरूपी सदाशिव कमल, भगवती तांत्रिक महादुर्गा के नीलकंठ और अन्नपूर्णा के दशवक्त्रशिव| अब धूमावती महाविद्या के जो परमशिव महाअघोरेश्वर है, उनका कोई दृश्यमान शरीर नहीं है| क्योंकि भगवती धूमावती विधवा स्वरूपा है, इसलिए उनके परमशिव महाअघोरेश्वर कोई शरीर धारण नहीं करते| वह अपने सूक्ष्म रूप में परांबा भगवती धूमावती के ही दिव्य शरीर के अंदर समाहित रहते हैं, कभी भी प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आते| पराभगवती दक्षिणाकाली के यह जो असंख्य महाविद्याये स्वरूप हैं, वह सब के सब पूर्णब्रह्मस्वरूपा है, स्वयं ही स्वयं के स्वामी और स्वयं के पत्नी के रूप में विचरण करते हैं|
फिर मैंने पूछा की क्या महाकालेश्वर और कालभैरव एक ही स्वरूप है? तब भानु बोली कि नहीं नहीं, महाकालेश्वर तो महादेव के परमशिव स्वरूप है जो कि कालीकापति कहलाते हैं और शिवतत्व के सर्वोच्च, अविनाशी, शुन्यरूपी, गुनातीत, और मानव मन के बोधातीत स्वरूप है, जबकि कालभैरव महादेव के भैरव स्वरूपों में से एक है, जो महाकाली के पुत्र कहलाते हैं और जिनकी उत्पत्ति क्षेत्रपालन और रक्षा के दायित्व से हूआ है| प्रकाश, अब मैं तुम्हें इन पूर्णब्रह्मस्वरूपा महाविद्याओं के बारे में एक और विचित्र बात बताती हूं| समस्त वैष्णवगण भगवान विष्णु के जिन 10 अवतारों की पूजा करते हैं, वह सब भी इन्हीं महाविद्याओसे उत्पन्न होते हैं| प्रथम महाविद्या दक्षिणाकाली ही भगवान श्रीकृष्ण है और द्वितीय महाविद्या भगवती ताँरा ही है मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र| देवी त्रिपुरासुंदरी ही कल्कि अवतार है और पराप्रकृति मां भुवनेश्वरी है बराह| मां भैरवी है नरसिंह और देवी छिन्नमस्ता है परशुराम| धूमावती है वामनावतार और बगलामुखी है कुर्म, देवी मातंगी बुद्धावतार और महाविद्या कमला है मत्स्य| इस प्रकार से वैष्णवगण 10 अवतारों की पूजा के माध्यम से पूर्णब्रह्ममयी 10 महाविद्याओं की ही उपासना करते हैं, जिस बात को वह जान ही नहीं पाते, और पराभगवती को केवल जड़ा प्रकृति और मायादेवी समझ कर अपमान करते रहते हैं| ऐसे  भगवती निंदक दलित वैष्णवो के प्रति महाविष्णु कभी भी प्रसन्न नहीं होते| क्यों की देवीमाया के वशीभूत होकर वह यह समझ ही नहीं पाते की दक्षिणाकाली ही मुरलीधर श्रीकृष्ण की जन्मदायिनी जननी है और स्वयं श्रीकृष्ण द्वारा पूजित भि है| माता दक्षिणाकाली ही कोटी कोटी ब्रम्हांडोके कोटि-कोटि ब्रह्मा विष्णु और रूद्र को जन्म देती है|
 तब मैंने भानु से पूछा कि, तो क्या हमें सिर्फ और सिर्फ शक्ति की ही पूजा करनी चाहिए और शाक्त संप्रदाय के अंतर्गत हो जाना चाहिए? तब भानु ने मुस्कुराते हुए बड़ी ही कोमल स्वर में कहा कि, प्रकाश, शायद तुम मेरी बातों को ठीक से नहीं समझे| भगवती दक्षिणाकाली तो शक्ति है ही नहीं और ना ही वह शिव है, बल्कि वह तो शिवशक्ति उभय स्वरूपा और साक्षात परिपूर्णब्रह्मस्वरूपिनी है जो कि “शिव और शक्ति”- इस भेद से भि परे है| आदिकाल मे केवल शिवशक्ति उभय स्वरूपा परिपूर्णब्रह्मस्वरूपिनी दक्षिणाकाली हि विद्यमान थे और उन्होने ही अपने सन्तानोके भावानूसार, वेद-वेदान्तवादीओ के लिये निराकार परब्रह्म, शैवो के लिये सदाशिव, शाक्तो के लिये पराशक्ति भूवनेष्वरी, वैष्णवो के लिये वैकून्ठपति महाविष्णू, गाणपत्यो के लिये श्रीमहागणेश और सौर्य सम्प्रदाइ के लिये भगवान सुर्य का रुप धारण किया था| तो यह समस्त स्वरूप और इन सव कि अवतार शृंखला मे जितने भी स्वरूप आते है, सव ही शिवशक्ति उभय स्वरूपा  परिपूर्णब्रह्मस्वरूपिनी दक्षिणाकाली के ही रूप है| एक भक्त अपने भावानूसार इनमे से ओर इनकी अवतार शृंखला मे किसि भी एक रूप को सर्वश्रेष्ठ मानकर उसकी आराधना करे तो परमगति को प्राप्त कर सकता है, क्योकी इन रूपो की पूजा अत्त मे शिवशक्ति उभय स्वरूपा परिपूर्णब्रह्मस्वरूपिनी दक्षिणाकाली को ही समर्पित होति है और यह ही सनातन सत्य है|
पराभगवती दक्षिणाकाली के इन शिव, शक्ति, विष्णु, गणेश, सूर्य आदि स्वरूपों में भेद बुद्धि या फिर छोटे बड़े का भेद कभी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह प्रज्ञा अपराध कहलाता है| प्रज्ञा अपराध महापाप होता है, क्योंकि एक प्रज्ञा अपराधी अपने आराध्य को बड़ा और दूसरों के आराध्य को छोटा समझ कर स्वयं अपने ही आराध्य के प्रति हिंसा और अपमान कर बैठता है| महाकाली के इन शिव, शक्ति, विष्णु, सूर्य और गणेश आदि पंच देवता और इन पांच स्वरूपोके अवतार श्रृंखला में जितने भी स्वरूप आते हैं, सिर्फ और सिर्फ यही समस्त स्वरूप एक जीवात्मा को परम मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है, और कोई देवता, मतलब इंद्र, चंद्र, वायु, वरुण, यम आदि कोई भी परम मुक्ति नहीं दे सकते|
 तब मैंने पूछा की, तो सृष्टिकर्ता ब्रह्मदेव और शिवपुत्र कुमार कार्तिकेय का क्या? क्योंकि वह तो इन स्वरूपों के श्रेणी में है ही नहीं| तब भानु मुस्कुराते हुए बोली की, परमशिव, पर:शिव, सदाशिव, महेश्वर, ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र, यह सात स्वरूप भगवान शिव के सप्तशिव स्वरूप कहलाते हैं| इस प्रकार से सृष्टिकर्ता ब्रह्मदेव इन सप्तशिव स्वरूपो के अन्तर्गत एक शिव स्वरूप है, और शिवपुत्र कुमार कार्तिकेय, जगत के पालनहार भगवान विष्णु के एक अवतार स्वरूप है| तो ब्रह्मदेव और कुमार कार्तिकेय भी पराभगवती के इन पंच देवता स्वरूपो के अवतार श्रृंखला मे आ जाते हैं और यह भी परम मुक्ति प्रदायक है|
 अब मैंने भानु से कहा कि मुझे मां काली के कुछ रहस्य के बारे में बताओ| तब वह बोली, तो ठीक है प्रकाश, ध्यान से सुनो, सबसे पहले मैं तुम्हें दक्षिणाकाली के सिंहासन के बारे में बताती हूं जिस पर वह महाकाल के साथ विराजमान रहती है| मां के आसन को महादेव के पांच स्वरूप अपने मस्तक पर धारण किए हुए रहते हैं, अर्थात मां के सिंहासन के पांच पैर है और महादेव के वह पांच स्वरूप, सिंहासन के उन 5 पैरों के रूप में विद्यमान रहते हैं| वह पांच स्वरूप है ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, महेश्वर और सदाशिव| यह पांच शिव स्वरूप क्रमश मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशूद्ध नामक चक्ररूपी कमल के फूलों में बैठे रहते हैं| अब यह पांच शिव एक साथ अपने मस्तक के ऊपर आज्ञा चक्र रूपी एक विशाल दो दलों से युक्त कमल का फूल धारण किए हुए रहते हैं, और उस आज्ञा चक्र रूपी द्विदल कमल पुष्प में महादेव की एक लेटी हुई मूर्ति विश्रामरत अवस्था में रहती है, जैसा हमें मां काली के चरणों के नीचे देखने को मिलता है, इस श्वेतबर्णीय पूर्ण दिगंबर शिव स्वरूप को पर:शिव या फिर शवरूपी शिव कहा जाता है|
अब इस शबरूपी पर:शिव के नाभि से एक विशालाकार और सहस्त्र दलों से युक्त सहस्त्रार चक्र रूपी नाभिकमल ऊपर की तरफ निकला हुआ रहता है| इस नाभि कमल के ऊपर परमब्रह्मस्वरूपी आदिनाथ परमशिव महाकालेश्वर विराजमान रहते हैं और महाकाल के बाई तरफ के जंघा के ऊपर पराभगवती दक्षिणाकाली बैठी रहती है| तब मैंने पूछा की क्या यह वही मूर्ति है जो मैंने अपने सपने में तुम्हारी अप्सरालोक में देखा था? तब भानु बोली, हां तुमने ठीक कहा, मैं इसी स्वरूप में माता की आराधना करती हूं, अब आगे सुनो| महाकालेश्वर सहित महाकाली के इस आसन को पंचप्रेतासन या फिर षष्टिशवासन कहां जाता है| यह पूरी मूर्ति षटचक्रभेद के तत्व को दर्शाती है| नीचे के ब्रह्मदेव से लेकर सदाशिव तक यह पांच शिव मूर्ति क्रमश मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशुद्ध चक्र के अधिपति है| इनके ऊपर शबरूपी पर:शिव सोए हुए हैं आज्ञा चक्र में| पर:शिव की नाभि है आज्ञाचक्रस्थ बिंदु| वहां से यात्रा आरंभ होती है सहस्रार चक्र की तरफ| इस नाभि बिंदु से निकलने वाले नाभिकमल की नाल में एक के ऊपर एक नवनाद, मतलव विन्दू, अर्धचन्द्र, निरोधिनी, नाद, नादांत, शक्ति, व्यापिनी, समाना और उन्मना स्थित है| इन सबके ऊपर है सहस्त्रार चक्र रूपी कमल के केंद्र में महाबिंदु, जहां पर कूलकुंडलिनीरूपी पराभगवती दक्षिणाकाली परमशिवरूपी महाकालेश्वर के साथ सामरस्य प्राप्त करके विराजमान रहती है| ब्रह्मदेव से लेकर पर:शिव तक यह सब ही महादेवी के पीठासन के अंश मात्र है, जीन सबसे उत्कृष्ट स्थान पर पराभगवती दक्षिणाकाली अपने अभिन्य स्वरूप परमशिव महाकाल के साथ निवास करती है|
 फिर मैंने पूछा कि, मुझे इन ब्रह्मा विष्णु आदि सप्तशिव और मां काली के दिव्य कर्तव्य और इनके सृष्टितत्व के संबंध में कुछ बताओ और मां काली को भला दक्षिणाकाली क्यों कहा जाता है? तब भानु बोली, ठीक है, मैं तुम्हें एक गुप्त रहस्य बताती हूं| सृष्टि के आदि में जब कुछ भी नहीं था, तब सिर्फ पूर्णब्रह्मस्वरूपिणी शिवशक्ति उभय सरूपा पराभगवती दक्षिणाकाली देवी अपने अवंमानसगोचर गुनातीत निराकारा स्वरूप में विद्यमान थी| यह अवस्था ना ही शिव है और ना ही शक्ति, बल्कि “शिव और शक्ति” भेद भाव से परे है| इस अवस्था को शैवगण केवल परमशिव और शाक्तगण केवल पराशक्ति कहते हैं| फिर शिवशक्ति उभय स्वरूपा पराभगवती अपने गुनातीत निराकार स्वरूप से गुनातीत साकार दक्षिणाकाली के स्वरूप में प्रकाशित होती हैं, जोकि “शिव और शक्ति” इन दोनों भावों से युक्त होती हैं| अब पराभगवती, अपने द्वारा उत्पन्न एक मायारूपी दर्पण में अपनी ही प्रतिबिंब को देखती रहती हैं और अपनी इच्छा से मानसिक संकल्प के द्वारा, अपने उस प्रतिबिंब से ही एक पुरुषाकार स्वरूप धारण करके प्रकाशित हो जाती हैं एवं स्वयं ही उस पुरुष के वामांग मे विराजित होती है| यही पुरुष परमशिव महाकाल है जो कि शिवतत्व के सर्वोच्च अवस्था है| इस प्रकार से परब्रह्मस्वरूपिनी, शिवशक्ति उभयस्वरूपा दक्षिणाकाली स्वयं को  शिव और शक्ति, इन दोनों स्वरूपों में विभाजित कर देती हैं, और स्वयं ही स्वयं के पति और पत्नी बन जाती हैं| महाकाल और महाकाली में कोई भेद नहीं होता, दोनों ही गुणातीत और मानव मन के बोधातीत अवंमानसगोजर अवस्था में प्रतिष्ठित रहते हैं| अपने वामांग में पराशक्ति महाकाली को धारण करके परमशिव सक्रियब्रह्म महाकालेश्वर कहलाते हैं, और अगर पराशक्ति महाकाली महाकालेश्वर को त्याग दें, तो परमशिव सक्रियब्रह्म महाकाल, शक्तिहीन होकर निष्क्रियब्रह्म शवरूपी पर:शिव बन जाते हैं|
इसी लिए महाकाली के चरणों के नीचे सक्रिय परमशिव महाकाल शक्तिहीन होकर निष्क्रिय शवरूपी पर:शिव के रूप में पड़े रहते हैं| महाकाल और महाकाली एक साथ इस पर:शिवरूपी शवासन के उपर बैठते हैं, क्योंकि निष्क्रिय ब्रह्मस्वरूप शिवरूपी मंच के ऊपर ही सक्रीय ब्रह्मस्वरूपिनी महाकाली अपना कार्य करती है| अब परमशिव महाकालेश्वर अपने आप को सदाशिव रूप में, और सदाशिव से महेश्वर के रूप में प्रकाशित होते हैं| अब इन महेश्वर से ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र एक साथ प्रकटित होते हैं| अब महाविद्याओं के उन परमधामोके नीचे, इन सदाशिव, महेश्वर, महाब्रह्मा, महाविष्णु और महारुद्र अपने अपने अविनाशी परमधाम में निवास करते हैं| जैसे भगवान सदाशिव अपने शिवलोक में, जिसे काशी भी कहते हैं| भगवान महेश्वर अपने ज्ञानकैलाश नामक लोक में, भगवान विष्णु अपने बैकुंठलोक में, ब्रह्मदेव अपने अविनाशी ब्रह्मलोक में और महारुद्र अपने अविनाशी कैलाश लोक में| और यहीं पर ही ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र के विभिन्न अवतारों के अविनाशी लोक, गणेशलोक, कार्तिकेयलोक आदि भगवान की विभिन्न स्वरूपों के अविनाशी लोक विद्यमान है| अब इन सब लोको के नीचे महाविष्णु से कोटि कोटि ब्रह्मांड प्रकटीत होते हैं जो कि कारणोदक सागर मे तैरती रहती है| अब अपने अविनाशी लोक में रहने वाले वह महाब्रह्मा, महाविष्णु और महारुद्र अपने आप को कोटि कोटि ब्रह्मा, कोटि-कोटि विष्णु और कोटि-कोटि रूद्र रूप में विभाजित कर इन कोटि कोटि ब्रह्मांडो के अंदर प्रवेश कर जाते हैं| इसलिए हर एक ब्रह्मांड के अलग अलग ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र होते है| अब हर एक ब्रह्मांड के अंदर उस ब्रह्मांड के ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र क्रमश उस ब्रह्मांड के अंदर स्थित सत्यकोक नामक ब्रह्मलोक, गर्भोदक सागर नामक विष्णूलोक और कैलाश नामक रूद्रलोक मैं निवास करते हैं| प्रकाश, इनमें से ही एक ब्रह्मांड  के अंदर मैं और तुम इस वक्त बैठे हैं|
अब आगे सुनो,  परमशिव महाकाल इन ब्रह्मा विष्णु और रुद्र रूप में सृष्टि स्थिति और संहार का कार्य, महेश्वर के रूप में तिरोभाव, मतलब प्राणों के उत्क्रमण का कार्य और सदाशिव के रूप में अनुग्रह, मतलब मोक्ष प्रदान करने का कार्य करते हैं| अब पराभगवती दक्षिणाकाली, परमशिव के इन स्वरूपो को शक्ति प्रदान करने के लिए सदाशिव के साथ देवी मनोन्मनी, महेश्वर के साथ देवी प्रसन्नगौरी, महारुद्र के साथ रुद्राणी पार्वती, विष्णु के साथ लक्ष्मी और ब्रह्मा के साथ सरस्वती रूप में निवास करती है, और इन असंख्य ब्रह्मांडो में असंख्य ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र के साथ असंख्य सरस्वती, लक्ष्मी और रुद्राणी पार्वती रूप में विराजीत रहती है| इस तरह पराभगवती दक्षिणाकाली ही समस्त देव और देवियों के रूप में विचरण करती हैं| अब जब महाप्रलय का समय आता है और समस्त ब्रह्मांडो के साथ-साथ ब्रह्मा विष्णु रुद्रादी स्वरूप परमशिव महाकाल में विलीन होते हैं, तब दक्षिणाकाली के अभिन्य स्वरूप परमशिव महाकाल, फिर से पराभगवती दक्षिणाकाली में विलीन हो जाते हैं| तो महाप्रलय काल में वामाशक्ति काली जागृत होकर अपने दक्षिण भाग में विराजित परम पुरुष को अपने अंदर समाहित कर वाम और दक्षिण, दोनों अंगो में केवल भगवती ही विराज करती है| इस समय भगवती फिर से शिवशक्ति उभयस्वरूपिणी गुणातीत निराकार स्वरूप धारण कर लेती है| तो अपने दक्षिणांग में विराजित परम पुरुष को अपने अंदर विलीन कर लेने से ही पराभगवती “दक्षिणाकाली” नाम से जानी जाती है| जो दक्षिणाकाली है, वही जगत प्रसविनी ताँरा है, जो ताँरा है, वही महादुर्गा है| महाकाली के महत्व का कोई अंत है ही नहीं और स्वयं शिवशंभू भी अपने पंचानन से उनकी गूणो को नहीं बता सकते| केवल अनन्य शरणागति से ही दक्षिणाकाली का आशीर्वाद प्राप्त किया जा सकता है|
 तो गुरुजी, मैं अपने पत्र को आज यहीं तक रखता हूं, फिर से मेरा अगला पत्र मैं जितनी जल्दी हो सके भेज दूंगा, आप सभी को प्रणाम|
संदेश- तो देखिये यहां पर इन्होंने बहुत ही सुंदर वर्णन माता महाकाली और उनके धाम का किया है। निश्चित रूप से इससे माता के भक्त लाभान्वित होंगे तो अगले पत्र का इंतजार करते हुए अगर आज का वीडियो हमको अच्छा लगा है तो लाइक करें। शेयर करें, सब्सक्राइब करें। आपका दिन मंगलमय हो। धन्यवाद।

भानु अप्सरा और अप्सरा लोक के दर्शन भाग 10

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