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माता विंध्यवासिनी और देवी की परीक्षा भाग 3

माता विंध्यवासिनी और देवी की परीक्षा भाग 3

नमस्कार दोस्तों धर्म रहस्य चैनल पर आप सभी का एक बार फिर से स्वागत है। देवी मां की इस कथा यात्रा को आगे बढ़ाते हुए अब अगले पड़ाव की ओर बढ़ते हैं। जब उस स्त्री से वह मूर्ति बात करने लगी तो उस स्त्री को बड़ा ही आश्चर्य हुआ उसने। बड़े ध्यान से उस प्रतिमा को प्रणाम किया और कहा, क्या आप माता विंध्यवासिनी है तब वह हंसकर कहने लगी। मैं तुम्हारी ही साधना का प्रतिफल हूं। और तुम जिस क्षेत्र में इस वक्त अपनी साधना कर रही हो, यह तुम्हारे पृथ्वी के आयाम से बढ़कर क्षेत्र है। यह वही स्थित है लेकिन इसमें प्रवेश करना किसी के लिए भी समर्थ शाली नहीं है। तुम बहुत भाग्यशाली हो कि तुम इस क्षेत्र में मौजूद हो और संसार से दूर हो।

स्त्री! देवी यह बात सुनकर बड़ी ही अचरज में आ गई और कहने लगी। मुझे तो ऐसा कुछ भी नजर नहीं आ रहा जो बातें आप बता रही है। क्या आप स्पष्ट रूप से मुझे बता सकती हैं कि मैं कहां हूं और यह क्या है तब मूर्ति? बोलने लगी देखो मैं तुम्हें जो दिखाती हूं उसे ध्यान पूर्वक देखो। इस विशालकाय नगर को देखो यहां के फूल बागीचे देखो यहां की सुंदरता देखो।

प्रकृति का अद्भुत सुंदर सौंदर्य देखो, यह वन बहुत सुंदर है। और चारों तरफ इसके बहुत ही सुंदर समुद्र है। चारों तरफ देखते रहो। स्त्री देवी आंखें बंद करके सब देखने लगी। वहां का नजारा बहुत ज्यादा सुंदर था। हर एक चीज प्रकाश से भरी हुई थी।

अद्भुत आनंद देख कर नजर आता था। जिसे देखो उस बात में आनंद की प्राप्ति होती थी। हर एक वहां का निवासी बहुत प्रसन्न था, लेकिन यह क्या?

जहां तक उनकी नजर गई हर तरफ स्त्री का ही वास था।

हर जगह! केवल स्त्रियां ही दिखाई दे रही थी। तब? आंखें खोल कर। उस प्रतिमा से बात करती हूं। देवी ने कहा, माता आप मुझे यह बताइए कि इस नगर में सारी स्त्रियां ही क्यों विद्यमान है। यहां पर कोई पुरुष क्यों नहीं दिखाई दे रहा है? तब उस मूर्ति ने कहा, यह केवल प्रकृति स्वरूप है और जन्म जननी होने का केवल दायित्व स्त्री के पास ही होता है। इसीलिए यहां तुम्हें कोई पुरुष दिखाई नहीं देगा। तब देवी ने पूछा बिना पुरुष के जीवन कैसे चल सकता है। अगर पुरुष नहीं होगा तो जीवन आगे बढ़ ही नहीं पाएगा। स्त्री तो केवल दासी होती है। अपने देवी की यह बात सुनकर प्रतिमा हंसने लगी। और कहने लगी जो तुम समझ रही हो, ठीक उसके विपरीत है। अगर संसार में केवल पुरुष होगा तो जीवन चक्र रुक जाएगा। लेकिन अगर संसार में स्त्री हो तो जीवन चक्र आगे बढ़ता है। तुमने देखा होगा कई ऐसे जीव है जो स्वयं संतान उत्पन्न कर सकते हैं। लेकिन वह भी स्त्री तत्व रखते हैं। बिना स्त्री तत्वों के संतान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। यह तो हो गई छोटी बात लेकिन मैं तुम्हें। एक बात बताती हूं। सुनो ध्यान पूर्वक! एक बार! भगवान विष्णु। और? भगवान शिव नारद जी के साथ में इस क्षेत्र में आए थे। देवी विध्यवासिनी की अनुकंपा से हुआ। यह देखना चाहते थे कि देवी किस प्रकार से रहती हैं तब जैसे ही वह इस क्षेत्र में प्रवेश किए वह स्त्री में बदल गए। इस प्रकार नारायण, नारायनी और शिव शिवा हो गए। नारद मुनि स्वयं स्त्री बन गए यह देखकर। तीनो लोग आश्चर्यचकित हो गए। उन्हें समझ में नहीं आया कि कैसे वह स्त्री बन चुके हैं तब नारद जी की बुद्धि! बिल्कुल फिर गई वह जोर-जोर से विलाप करने लगे। अरे मैं तो स्त्री बन गया। मेरा जीवन तो नष्ट हो गया। मेरा ब्रह्मचर्य भी खत्म हो गया। यह नारायण यह क्या हुआ। आप मेरी रक्षा कीजिए तब भगवान नारायण कहने लगे। तुम ने देवी के क्षेत्र में प्रवेश किया है। इसीलिए हम सभी के अंदर स्त्री तत्व की शक्ति के कारण हम सभी स्त्री हो गए हैं।

वह देवी पराशक्ति, दुर्गा लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री, राधा इत्यादि के नाम से जानी जाने वाली शक्ति स्वरूपा है। वह हर रूप में पूजी जाती है। उन्हीं से पूरी सृष्टि है। वह शिव की शिवा, नारायण की लक्ष्मी है।

तब नारद जी ने कहा, यह प्रकृति कौन है और कहां से प्रकट हुई थी, उनके लक्षण क्या है, उनकी पूजा क्या है उनकी पूजा सामग्री क्या है, उनका गुण कहा है, वह क्या है? तब भगवान नारायण ने कहा, प्र का अर्थ होता है। प्रकृति और सृष्टि का अर्थ होता है कृति अर्थात जो सृष्टि रचना में सबसे ज्यादा निपुण है, उन्हीं देवी प्रकृति कहा जाता है। तीन प्रकार के गुण में सर्वश्रेष्ठ होता है। यानी अच्छाई की विद्या श्री का संदर्भित है। जुनून की विद्या, अति तीसरे का अर्थ है। अज्ञान का स्वरूप इस प्रकार त्रिगुण स्वरूपा वही सृष्टि कार्य में सुसज्जित परंपरिक। प्र का तात्पर्य प्रथम है। कृति का तात्पर्य सृजन से है। सृष्टि के आरंभ में विद्यमान देवी प्रकृति कहलाती है। सृष्टि स्वयं परब्रह्म परमात्मा स्वयं दो रूपों में जब भी विभक्त होता है, इसे प्रकृति और पुरुष कहते हैं। वही प्रकृति ब्रह्म स्वरूप, आदित्य, विद्यमान और शाश्वत है। जैसे अग्नि में ग्राहक यानी जलाने का कार्य होता है, उसी तरह योगी पुरुष, पुरुष और प्रकृति में अंतर नहीं देते। वही सनातन है, वही सत्य है और वही ब्रह्म स्वरूपा है। उनकी की इच्छा से जड़ प्रकृति परमेश्वर का स्वरूप धारण कर जागृत हो जाती है।

इनका न कोई आदि है न अंत है इसीलिए स्वयं मैं भी भगवान शिव ही और तुम। स्त्री तत्व हो गए हो। उनकी इच्छा से ही हम सभी चलते हैं। ब्रह्मांड में वह जैसे स्वरूपों को धारण करना चाहती हैं, वही धारण करती है। वही सर्व व्यापक है, वही पुरुष है और वही स्त्री भी वही सिद्धि है। सिद्ध है, सिद्धि कारक है और पूर्णब्रह्म है।

इनकी कृपा से जन्म मृत्यु बुढ़ापा रोग शोक भय सब कुछ नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार मैं हर प्रकार से उस पालन शक्ति का। रूप लेकर जगत में पालन करता हूं। शिव उसी शक्ति का आश्रय लेकर संहार करते हैं और ब्रह्मदेव रचना करते हैं तुम स्वयं उसी शक्ति के आधार पर। तीनों लोकों का भ्रमण कर सूचनाएं इखट्टा करते हो, इसीलिए देवर्षि कहलाते हो।

अब इन सब बातों को समझते हुए तुम्हें ध्यान पूर्वक इनकी वंदना करनी चाहिए इस प्रकार समझाने पर।

देवर्षि नारद कहने लगे, यह तो बहुत ही गोपनीय बात है। आप लोगों ने अपना अस्तित्व ही खो दिया। आप सभी स्त्री रूपा हो गए हैं। अब मैं आपको नारायणी और शिवा के रूप में यहां पर देख रहा हूं।

इस प्रकार दोनों लोग हंसने लगे और देवी के इस अद्भुत स्वरूप को जान पाए।

अब वह सब आगे बढ़े और देवी के दर्शन किए। वह भगवती बहुत ही दिव्य रूप में वहां पर विराजमान थी।

यह भी उसी क्षेत्र का एक स्थान है जहां पर तुम विद्यमान हो। अब तुम बताओ कि तुम्हारे यहां आने का क्या कारण है?

तब देवी ने कहा। माता मेरा यहां आने का वास्तव में तो यह कारण था कि मैं अपने रूप को सुंदर बनाना चाहती थी। मैं सुंदर हो जाना चाहती थी क्योंकि मेरे पति ने मेरा त्याग केवल इस कारण से कर दिया कि मेरे शरीर में सफेद दाग है। और मैं चाह रही थी कि मुझे कृपा प्राप्ति हो माता की। यह सुनकर मूर्ति हंसने लगी। और कहने लगी। सांसारिक इच्छाओं को तुम सबसे सर्वोपरि लेकर चल रही हो लेकिन चलो माता के धाम में आई हो तो तुम्हारी इच्छा भी पूर्ण होगी।

तुम भ्रम रूपी संसार को सत्य समझ रही हो? यह तो केवल एक यात्रा मात्र है क्योंकि कुछ ही वर्षों में तुम बूढ़ी हो जाओगी। तुम्हारी संताने जवान हो जाएंगी और मर कर तुम फिर एक नई यात्रा को आरंभ करोगी।

तब देवी ने कहा, मुझे आगे की चिंता नहीं है मुझे तो मेरा पति और मेरा। परिवार चाहिए क्योंकि मैं उसी को प्राप्त करने की इच्छा रखती हूं। मूर्ति हंसने लगी और कहने लगी, ठीक है जाओ! अभी तुम्हारी साधना पूर्ण नहीं हुई है किंतु फिर भी तुम्हें। मेरे अद्भुत रहस्य का ज्ञान हुआ है। इसके पुण्य के कारण अब तुम आगे की लीला को स्वयं। ग्रहण करोगी यह कहते हुए मूर्ति शांत हो गई।

देवी को कुछ समझ में नहीं आया। आखिर माता ने मूर्ति के रूप में जो बातें बताई हैं, उनका रहस्य क्या है तो साधना करने के पश्चात वह उठकर फिर से चारों तरफ घूमने लगी। कुछ दूर आगे जाने के बाद अचानक से उसने देखा कि वह तो अपने उसी परिवार के घर के आगे आ गई। और उसकी और उस घर के बीच में एक अदृश्य तरह का पर्दा लगा हुआ है। तब वह देखती है तो घर में भी प्रवेश कर जाती है, लेकिन वह पर्दा हटता नहीं है। यानी कि वह कहीं भी आ जा सकती थी, लेकिन वह उस दुनिया में होकर भी उस दुनिया में नहीं थी।

सामने देखती है उसका पति नई शादी करने के लिए परिवार वालों से कह रहा था। वह कहता है कि मुझे शादी करनी है। वह स्त्री तो चली गई। मुझे एक सुंदर स्त्री चाहिए और इस परिवार को भी तो वंशज चाहिए।

यह सुनकर देवी बहुत दुखी हो जाती है और सोचती है जिस पति को प्राप्त करने के लिए वह इतना प्रयत्न कर रही है। वह तो नए विवाह को रचाने के लिए तैयार हो गया है। अब क्या करूं?

फिर भी वह सोचती है अगर मैं यहां होती तो शायद वह अपना विचार बदल देता।

वह वहां बाहर निकलने की सोचती है पर निकल नहीं पाती है। वह पर्दा हटता नहीं है। इसलिए वापस जाकर फिर से साधना करने लगती है। इधर देवी की प्रतिमा दोबारा से उससे बात करती है और कहती है। देवी! तुम यह बताओ? कि अब साधना करने का उद्देश्य क्या है? तब फिर से देवी कहती है।

माता मैंने अभी अपने पति को देखा जो कि नया विवाह करने के लिए आतुर हो गया है। उसकी तो मन में। नया विवाह करने की इच्छा बहुत तीव्र है।

और वह भी क्यों ना? क्योंकि जब? मैंने! उस घर को छोड़ दिया है तो भला वह मेरे बारे में क्यों सोचेगा? इसीलिए मुझे अब और भीषण तपस्या करनी है।

मैं तीव्रता से आपके मंत्रों का उच्चारण करूंगी और प्रसन्न होकर मुझे वरदान दीजिएगा। तब हम मूर्ति कहने लगती है। कोई बात नहीं, तुम प्रयास जारी रखो। मूर्ती से बाहर मुझे निकालने के लिए तो तुम्हें भीषण तपस्या की आवश्यकता है। तुम और ज्यादा तपस्या करो। इस प्रकार देवी फिर से माता के मंत्रों का जाप करने लगती है और तपस्या की नए स्तर पर पहुंचती है। उसकी तपस्या से उसके शरीर के चारों ओर का आभामंडल बहुत तेज होने लगता है। और इससे उसे बहुत ज्यादा कष्ट भी हो रहा था। उसकी आंखों से आंसू निकलने लगते हैं। रोते हुए उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उसे इतना ज्यादा और रोना क्यों आ रहा है? इसका क्या कारण है? क्या वह अपने पति के लिए रो रही है? माता को प्रसन्न करने के लिए रो रही है? या फिर यह आंसू इस बात की कुंठा है कि उसका पति? उसे भूल चुका है उसका ससुराल उसे पूरी तरह त्याग चुका है।

आखिर वह इतना ज्यादा क्यों रो रही है?

तो आगे की कथा हम लोग जानेंगे। अगले भाग में तकरार की जानकारी और कहानी आपको पसंद आई हो तो लाइक करें। शेयर करें सब्सक्राइब करें आपका दिन मंगलमय हो जय मां पराशक्ति।

माता विंध्यवासिनी और देवी की परीक्षा भाग 4

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