Site icon Dharam Rahasya

माता विंध्यवासिनी और देवी की परीक्षा भाग 1

माता विंध्यवासिनी और देवी की परीक्षा भाग 1

नमस्कार दोस्तों धर्म रहस्य चैनल में आप सभी का एक बार फिर से स्वागत है। आज हम मठ और मंदिरों की कहानी में माता के एक ऐसे स्वरूप जिन्हें हम माता विंध्यवासिनी कहते हैं। उनकी एक भक्त की कहानी और एक महर्षि गर्ग के संप्रदाय में उनके गुरु और शिष्य परंपरा में उन्हीं के वंशज एक गुरु की कथा को लेकर के उपस्थित हुए हैं तो आज के इस वीडियो के माध्यम से हम एक प्राचीन रहस्य को फिर से खोलेंगे और जानेंगे कैसे माता की कृपा से बड़े से बड़े संकट से निकला जा सकता है।

यह कहानी आज से कई सौ वर्ष पूर्व शुरू हुई थी। यह वह समय था जब हमारे देश में प्राचीन परंपरा स्थापित थी।

माता विंध्यवासिनी क्षेत्र प्रसिद्ध था माता की कृपा प्राप्ति करने के लिए और विशेष रूप से एक ऋषि थे जिनका नाम गर्ग है उन्हीं की परंपरा में बहुत सारे वंशज हुए जो शनाया कहलाए। इन्हीं के संदर्भ में एक कहानी जो किवदंती के रूप में हमें प्राप्त होती है उसी को मैं आज आप लोगों को सुना रहा हूं।

एक कन्या जिसका नाम देवी था जो कि एक अत्यंत ही उच्च कोटि की साधिका भी थी। उसके पास सब कुछ अच्छा था, लेकिन उसके शरीर पर सफेद रंग का दाग होने के कारण उसका विवाह जल्दी कहीं तय नहीं हो पा रहा था। सारे लोग जो भी उसके बारे में जानते थे, इसी कारण से उसका विवाह नहीं होने दे रहे थे। किसी के अंदर अगर कोई कमी आ जाती है तो उसके कारण बड़ी ही समस्याएं उत्पन्न हो सकती है। तो उसके पिता ने एक युक्ति लगाई और सोचा कि शरीर के अंदर के हिस्से को भला कौन देख सकता है? उसकी पीठ और छाती के हिस्से को ढक कर रखने के लिए कहा और दूर नगर में रिश्ता तय करने की बात की। एक बहुत ही बड़े साहूकार उस वक्त विद्यमान थे। उनके घर पर गए और अपनी पुत्री के विषय में अच्छी-अच्छी बातें उन्होंने बताई। यह सुनकर वह व्यक्ति और उसका परिवार अपने पुत्र के लिए इस कन्या को देखने के लिए आ जाता है। कन्या सच में सुंदर भी थी और पूरी तरह सजी-धजी होने के कारण। उन्होंने उसे बहुत जल्दी पसंद कर लिया। उसके संस्कार भी पूरी तरह सात्विक नजर आते थे। शीघ्र ही विवाह भी तय कर दिया गया।

लेकिन कुछ लोग जो कि इस बात से अप्रसन्न थे। यह कह रहे थे कि कहीं इस बात को छुपाने की वजह से उनकी पुत्री के ऊपर संकट ना जाए, लेकिन पिता को अपनी पुत्री का विवाह हर हाल में करवाना था और यही उसकी प्राथमिकता थी। इसीलिए उन्होंने इस बात के विषय में कोई चर्चा भी नहीं कि बड़े ही धूमधाम के साथ विवाह हो गया और जैसे ही सुहागरात की रात्रि आती है, उसका पति अपनी पत्नी को शयनकक्ष में प्रेम पूर्वक वार्तालाप करता है और जैसे ही वह समागम की क्रिया के लिए उसके वस्त्रों को उतारता है शरीर पर।

बड़ी मात्रा में सफेद रंग के दाग देखकर भौचक्का रह जाता है और तुरंत उसे छोड़कर कमरे से बाहर निकल जाता है। क्रोधित होकर अपने पिता से कहता है आपको यही स्त्री मेरी जीवन के लिए मिली थी। इसका तो पूरा शरीर ही दाग से भरा हुआ है। अब ऐसे में मैं इसे कैसे स्वीकार करूं? यह सुनकर उसके पिता भी स्तब्ध रह जाते हैं और अपनी पत्नी यानी कि उस पुरुष की मां से कहते हैं। जाओ देखकर आओ कि क्या सत्य है? वह जाकर जब अपनी बहू के शरीर की निगरानी करती हैं तो शरीर पर बड़ी मात्रा में सफेद दाग फैल चुका था इसके कारण उसे।

बहुत ही कष्ट झेलने पड़ते हैं पूरे परिवार उसे दुत्कारता है।

यह समस्या अब और भी ज्यादा बढ़ने वाली थी। बात छिपी नहीं तो आसपास के लोगों को भी यह पता चल जाता है और वह कहते हैं। इससे अच्छा तो इसे छोड़ दो क्योंकि अगर इससे संतान उत्पन्न होगी तो उसके शरीर में भी दाग होंगे। तुम्हारा वंश ही बेकार हो जाएगा। यह तो कोढ़ है इस रोग को कैसे ठीक कर पाओगे? इसी वजह से आखिरकार वह लोग उस स्त्री को घर से निकाल देते हैं। स्त्री बहुत दुखी होकर घर से प्रस्थान कर जाती है क्योंकि वह माता की बहुत बड़ी भक्त थी। इसीलिए वह उनके की मंदिर में जाना उपयुक्त समझती है। और फिर वहां उस स्थान पर पहुंचती है माता के सामने रोते देखकर।

गर्गाचार्य ऋषि परंपरा के एक ऋषि ने उन्हें अपने पास बुलाया और पूछा पुत्री क्या हुआ? तब वह अपनी सारी बात बताती है तब वह कहते हैं। असंभव से भी असंभव कार्य माता विंध्यवासिनी कर सकती हैं। उनकी भक्ति करो जैसे मेरे ही वंश परंपरा में महर्षि गर्ग को उनकी कृपा प्राप्ति हुई थी।

तब उन्होंने कहा, आप इस विषय में मुझे बताइए, मैं आपके साथ रहकर भक्ति सीखना चाहती हूं ताकि मेरी इस समस्या से मेरा सामना सदैव के लिए ना रहे। मैं इससे मुक्त हो जाऊं। तब वह कहते हैं। गर्ग नाम के अनेक आचार्य हो चुके हैं। महर्षि गर्गाचार्य यदुवंश के कुल गुरु भगवान श्री कृष्ण और बलराम का नामकरण संस्कार करने वाले थे। गर्ग संहिता की रचना भी उन्होंने ही की और ज्योतिष शास्त्र के बहुत बड़े ज्ञाता थे। यहां तक कि भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह संस्कार संपन्न कराने वाले आचार्य के रूप में भी उन्हें जाना जाता है।

श्री राधा कृष्ण के दिव्य ब्रज निकुंज रस के सर्वप्रथम प्राकट्यकर्ता महर्षि गर्ग ही है इसका प्रमाण उनके द्वारा रचित गर्ग संहिता है। आप उन्हीं की परंपरा में आज मुझ से बातचीत कर रही है महर्षि गर्ग!

की जो परंपरा है वह इस प्रकार से शुरू होती है।

अंगिरा के पुत्र लोकनामा उनके पुत्र बृहस्पति उनके भारद्वाज उनके भी वितथ,कात्यायन व द्रोणाचार्य

। भूमन्यु फिर महर्षि गर्गाचार्य उनसे शिनी फिर द्वितीय गर्गाचार्य फिर शैनया और फिर शिनी वंशज परंपरा में हम लोग शनाया कहलाते हैं। इस प्रकार यह परंपरा चलती चली आ रही है। मैं अपने ही उन महान ऋषि के संदर्भ में बताता हूं।

उन्होंने माता विंध्यवासिनी को प्रसन्न किया था। और भयंकर तपस्या की थी।

तब? आकाशवाणी स्वरूपा। जो देवकी के आठवें गर्भसे कंस का वध होगा। यह बात जब कंस ने सुनी तो उसने वसुदेव और देवकी को बंदी बना लिया था और अत्याचार प्रारंभ कर दिया था। तब जो भी बालक उत्पन्न होता कंस उन्हें मार डालता था। कंस के हाथों 6 बालकों की मृत्यु होने के बाद देवकी के अंतः करण में दुख का सागर उमड़ पड़ा। तब वसुदेव जी ने ही गुपचुप मुनिवर गर्ग को बुलाकर अनुनय और विनय किया और पुत्र की इच्छा के लिए कहा था तब देवकी की कष्ट कथा उन्होंने कह सुनाई और महर्षि गर्ग आचार्य जी ने विंध्याचल पर्वत पर जाकर देवी भगवती की आराधना और तपस्या प्रारंभ कर दी थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवी वहां प्रकट हो गई। देवी ने कहा है महर्षि मैं प्रसन्न हूं और तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध होगा। तब गर्गाचार्य जी ने कहा था कि हे माता महामाया और जगत की आदेशकारिणी है। आप की मूर्ति कृपामई है आपको प्रणाम, मां ने कहा, तुमने मेरी अद्भुत तपस्या की है। मैं तुम्हारी भक्ति से अति प्रसन्न हूं। हे यदुवंशियों की आचार्य महर्षि गर्गाचार्य अपना वर मांगिए। तब गर्गाचार्य  ने कहा, इस समय संपूर्ण सृष्टि कंस के पापों से दुखी हो रहे हैं। इसलिए माता जगत का उद्धार कीजिए। तब देवी मां ने कहा कि। हे मुनिवर जगत के कल्याण के लिए तुमने जो कामना की है, वह अवश्य पूर्ण होगी।

इस पृथ्वी का भार दूर करने के लिए ही मैंने। भगवान विष्णु को आदेश दिया है कि वह वसुदेव के यहां देवकी के गर्भ में अपने अंशावतार के रूप में प्रकट होंगे। वसुदेव जी कंस की डर से उन्हें गोकुल में नंद जी के घर पहुंचा देंगे ताकि यशोदा की कन्या को ले जाकर अपनी यहां। कंस को लाकर दे देंगे। कल उस कन्या को जमीन पर दे मारेगा और तब वह कन्या हाथ से छूट जाएगी। उसका अत्यंत मनोहर रूप हो जाएगा। मेरा ही अंश रूप विग्रह धारण करके वह विंध्याचल के विन्ध गिरी पर जाकर जगत के कल्याण के लिए संलग्न हो जाएगी। इस प्रकार देवी मां के मुख से सुनकर मुनि गर्ग ने भगवती जगदंबिका को प्रणाम किया और प्रसन्न होकर मथुरा पुरी में आए और वसुदेव जी को देवी मां का यह वरदान सुनाया था। देवी मां की कृपा से ही भगवान विष्णु फिर श्री कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं और उन्हीं की कृपा से कंस का वध भी होता है। यही विंध्यवासिनी देवी मां का चमत्कारिक मंदिर विंध्याचल की पहाड़ियों के मध्य उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर नामक स्थान पर गंगा नदी के तट पर बसा हुआ है। इस तीर्थ को 51 शक्तिपीठों में मान्यता प्राप्त है। यह एकमात्र ऐसा शक्तिपीठ है जहां पर देवी के संपूर्ण विगृह का दर्शन प्राप्त होता है। भक्तों के द्वारा इन्हें नवदुर्गा, वंदुर्गा इत्यादि के रूप में पूजा जाता है। देवी विंध्यवासिनी के दर्शन मात्र से भक्तों की संपूर्ण कष्ट और पीड़ा दूर हो जाते हैं और मनोवांछित फल प्राप्त होता है। विंध्यवासिनी की आराधना से संतान हीनों के संतान

की प्राप्ति होती है और जो भी उनका नित्य श्रवण और पूजन करता है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। तुम भी अपने रूप को वापस प्राप्त कर पाओगी। तुम्हारा पति भी तुम्हारे इस रूप को देखकर स्वयं कहेगा कि मैंने इतनी बड़ी गलती की है, लेकिन इसके लिए तुम्हें माता की आराधना करनी पड़ेगी। मैं तुम्हें उनके गुप्त मंत्र सिखाऊंगा और अब तुम्हें उनकी भयंकर और भीषण तपस्या। करनी पड़ेगी। माता का अष्टभुजा स्वरूप।

अष्टभुजा देवी के रूप में पर्वत शिखर पर है। वहां जाकर उस जंगल में आराधना करो। जहां तुम्हें स्वयं ही अपने लिए भोजन बनाना पड़ेगा वहां पर बहुत सारी समस्याएं भी तुम्हारा सामना करने के लिए तैयार रहेंगी। अब वहां पर तुम्हें सब चीजों से निपटते हुए ही सिद्धि की प्राप्ति होगी। जाओ वहां जाकर अपनी तपस्या की शुरुआत करो माता जगदंबा माता विंध्यवासिनी। तुम पर अवश्य प्रसन्न होंगी और तुम्हारा अवश्य ही कल्याण करेंगी यह बातें सुनकर। वह स्त्री उनके पैर छूकर कहती है। आपने मुझे गर्ग वंशी परंपरा, माता, विंध्यवासिनी का रहस्य और जगत में उनकी उत्पत्ति की कहानी सुनाई है। मैं आपको अपना गुरु स्वीकार करती हूं। आप मुझे गोपनीय मंत्र माता विंध्यवासिनी का प्रदान कीजिए। मैं जाकर उनके अष्टभुजी स्वरूप वाले स्थान पर तपस्या करूंगी। वहां पर? बहुत भीषण जंगल है, ऐसा मैंने सुना है। और भी जंगली जानवर और खतरे हैं। तो मेरे लिए क्या आज्ञा है? तब उन्होंने कहा, मैं तुम्हें माता की सिद्ध की हुई माला पहनाता हूं। इस माला को जब तक तुम अपने गले में धारण रखो गी तब तक कोई भी जीव जंतु शक्ति तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगी। अब जाओ और हां अपने लिए भोजन की व्यवस्था। अवश्य कर लेना एक स्त्री के लिए तपस्या करना बड़ा ही कठिन कार्य होता है। लेकिन तुम्हें यह करना पड़ेगा तभी तुम सिद्धि को प्राप्त कर पाओगी। माता को प्रसन्न करने के लिए गर्गाचार्य जी ने भी वर्षों तक तपस्या की थी। लेकिन तुम्हारी इच्छा बहुत बड़ी नहीं है। इसीलिए तुम्हें जल्दी ही सफलता मिल जाएगी। लेकिन तन मन, धन और हर प्रकार से समर्पित होकर माता विंध्यवासिनी को प्रसन्न करने का प्रयास करना तभी तुम्हें सफलता मिलेगी। इस प्रकार ऋषि ने उस स्त्री को समझाया और समझा बुझाकर उसे पर्वत श्रंखला की ओर भेज दिया। जहां पर माता का प्राकृतिक प्रकटीकरण भी हुआ था।

अब यह उसी स्थान पर पहुंच गई। उसने किसी प्रकार व्यवस्था करके छोटी सी झोपड़ी तैयार कर ली। और उसके अंदर ही बैठकर तपस्या और साधना करने का निश्चय लिया।

रात्रि के समय उसे वहां। बहुत जोर से किसी जानवर के चिल्लाने की आवाज सुनाई देने लगी। वह जानवर शायद शेर ही था। यह सुनकर वह अंदर तक कापने लगी। उसे लगा कि कहीं यह जानवर उसकी मृत्यु के लिए ही तो नहीं आया है?

उसने निकल कर देखा। तो देखा सामने वहीं खड़ा था। वह क्रोधित होकर बड़ी तेजी के साथ उस स्त्री की ओर बढ़ने लगा। स्त्री के हाथ और पैर फूल गए।

वह यह भी भूल गई कि वह किसी पेड़ पर चढ़ जाए या फिर अपने ही घर में अंदर प्रवेश कर दरवाजा बंद कर दे। लेकिन डर के कारण वह सब कुछ भूल गई। और वह जानवर यानी कि वह शेर बड़ी तेजी के साथ उसकी ओर आने लगा। शायद वह उसे खाकर अपना पेट भरना चाहता था। आगे क्या हुआ जानेंगे हम लोग अगले एपिसोड में तो अगर आज की जानकारी और यह कहानी आपको अच्छी लग रही है तो लाइक करें। शेयर करें, सब्सक्राइब करें।

जय हो जय मां पराशक्ति।

माता विंध्यवासिनी और देवी की परीक्षा भाग 2

Exit mobile version