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ॐ का रहस्य

 गुरूजी और माता पराशक्ति के श्री कमलो में मेरा नमन  है aur धर्म रहस्य को देखने वाले सभी दर्शको को  मेरा नमन है| और यह पत्र मै केवल धर्म रहस्य को भेज रहा हूँ | मै अभिषेक कुमार आज आप लोगो के सामने बिलकुल नवीन तत्य को आपके सामने रखूँगा मै ॐ के रहस्य की बात करूँगा और बिल्किल नवीन ढंग से नवीन दृष्टिकोण से 

जो भी आप उच्चारित कर देते  है वो वाक्य कहलाता है और हर वाक्य का अपना स्वयं का एक अर्थ होता है | अगर हम पानी शब्द  का उच्चारण करे तो इसका अर्थ हुआ एक  ऐसा तरल पदार्थ जो पिने के काम आता है ठीक जिस प्रकार से शिव में शक्ति को अलग नहीं किया जा सकता है उसी प्रकार वाक्य में से अर्थ को अलग नहीं किया जा सकता है | और वाक्य को भगवान शिव कहा गया उसी प्रकार माता पार्वती को अर्थ कहा गया | 

और वाक्य और अर्थ से ही एक मनुष्य का दुशरे मनुष्य से एक ध्वनि का दुसरे ध्वनि से  सम्बंद स्थापित होता है तो इस  प्रकार से  किसी न किसी शब्द  का कुछ अर्थ होता ही है तो मै ॐ शब्द पर बोल रहा था जिसको प्रणव कहा जाता है|  हर मंत्र के आगे इसको लगाना आवश्यक माना गया है|  लेकिन आखिर क्यों इसका कारण क्या है क्यों प्रणव को सबसे अधिक प्रभावशाली और सबसे उत्तम माना गया है| जरूर निश्चित रूप से इसका भी कोई बढ़ा विनियास होगा इसका जरूर कुछ बहुत बढ़ा अर्थ होगा तब ही तो इसको इतना महत्त्व दिया गया और उस रहस्य को मै आज आपके सामने रखूँगा जो चीज़ मैंने जाना आपको ठीक वही चीज़ बतऊँगा और इसके अर्थ को जान कर आप निश्चित ही आश्चर्य चकित हो जाएंगे और इसके मूल महत्त्व को सही रूप से जान पाएंगे तो मै आपको ॐ का विनियास बता रहा था ॐ शब्द ३ अक्षर को मिला के बना है जिसका अपना अपना महत्त्व है|  अपना अपना अर्थ और विनियास है और वो ३ अक्षर है  अ ऊ और म | ये तीन अक्षरो को मिला कर ॐ शब्द बना अब इनके हर एक अक्षर का विनियास  समझाने का प्रयास करूँगा | 

ॐ शब्द  में पहला अक्षर है अ और  ऋषि वेदव्यास ने  अ को तो  ब्रम्हांड बताया है ( अ अक्षरा ब्रम्हंडाम ) कहना का अर्थ है अ स्वयं ब्रम्हांड है ब्रम्हांड का परियाए है परियाए नहीं ये तो स्वयं ब्रम्हांड ही है | परियाए तो उसे कहते है उसके समान कोई चीज़ लेकिन ये अक्षर तो स्वयं ब्रम्हांड ही है और इसकी उत्पति हुई थी भगवन शंकर के नष्य से नृत्य से अर्थात जब भगवन शंकर ने प्रथम बार तांडव नृत्य किया तब उस समय १४ ध्वनि निकली थी और १४ ध्वनियों में से प्रथम ध्वनि अ थी और अ ध्वनि   कही रुका नहीं  पुरे ब्रम्हांड में  फ़ैल  जाई  और पूरा ब्रम्हांड केवल इस अक्षर में सिमट कर रह गया और पुरे संसार के भाषा  का प्रथम अक्षर भी अ ही है | अ ही पुरे भाषा का प्रथम अक्षर है |  अगर पूरे ब्रम्हांड को जानना है ब्रम्हंड के रहस्यों को अगर जानना है तो केवल अ  अक्षर को  समझने की आवश्यकता है|  अगर पुरे ब्रम्हांड में दृष्टी डालनी है देखना है की कहा क्या हो रहा है और पुरे ब्रम्हांड में स्वयं को स्थापित करना है या  सप्तलोक तक पहुचना है तो केवल इस अक्षर अ की साधना को समझने की आवश्यकता है | 

शास्त्रों में शब्द को ब्रम्ह कहा गया है ठीक यही बात शंकराचार्य ने अपने शिष्यों को भी कहा था  एक बार जो शब्द उच्चारित हो जाए वो कभी  समाप्त होते नहीं क्युकी शब्द  ही ब्रम्ह है और ब्रम्ह को तो  समाप्त नहीं किया जा सकता तो उन सब्दो को भी समाप्त नहीं किया जा सकता | इसका अर्थ हुआ की वो शब्द वायु मंडल में उपस्थित है इसका अर्थ हुआ आज से हज़ार साल पहले जो शब्द उच्चारित हुआ उसको आज भी सुना जा सकता है जिस प्रकार भगवन कृष्णा ने अर्जुन को गीता उपदेश दिया था उनको भी कृष्ण की आवाज में वही ध्वनि में फिर से  सुना जा सकता है अगर विशेष यंत्रो द्वारा अगर हम उन ध्वनियों को पकड़े सके  तो निश्चित रूप से हम उन सब्दो को सुन सकते है|  और ये यंत्र हमारे सामने है अगर वर्त्तमान में कोई प्रोग्राम चल रहा हो तो उसको पूरा विश्व t.v के माध्यम से देख सकता है और सुन सकता है और इसको सरल शब्दों में समझाता हूँ मान लीजिए की अमेरिका में कोई event चल रहा है तो उस event को पुरे विश्व में t.v  के माध्यम से देखा जा सकता है वायु मंडल में एक पदार्थ है जिसका नाम ईथर है इसके माध्यम से एक ध्वनि एक स्थान से दुशरे स्थान तक गतिशील होती है और ईथर १ सेकंड के १४वे हिस्से में पुरे ब्राम्हंड का ३ चक्कर लगा लेता है|  इसी के माध्यम से आप उस प्रोग्राम को घर बैठे देख पाते है लेकिन विज्ञान तो  केवल वर्त्तमान ध्वनियों को ही सुन और  पकड़ पा रहा है | लेकिन हमारे ऋषियों ने वर्त्तमान ध्वनियाँ ही नहीं बल्कि हज़ारो साल पुरानी ध्वनियों को पकड़ा और  सूना है जब विज्ञान इस  विषय में  प्रगति कर पाता है तो

निश्चित रूप से एक दिन सुन  सकते है  लेकिन   किसी प्रकार की ध्वनि को पकड़ने के लिए भी केवल अ  अक्षर को सिद्ध  करने की  जरुरत है मै  मंत्र को सिद्ध करने की बात ही नहीं कर रहा  मै  केवल अ अक्षर  की बात कर रहा हूँ | बहुत सिद्ध होने के बाद मंत्रो को सिद्ध किआ जाता है और विश्वामित्र ने २०० पृष्ठों के ताम्र पत्र पर केवल अ अक्षर की साधना को  समझाया है|

ऐसे कई जगह है जहा पर हज़ारो प्राचीन ग्रँथ छितरे पढ़े हुए है | हमने कभी उन्हें समझने का प्रयास किया नहीं ऐसे ज्ञानो को तो हमने नमन किया है आरती उतारी  है, तिलक लगाया है लेकिन खोल कर कभी पढ़ने का और समझने का प्रयास किया नहीं |  किसी को ये मूल स्थानों का पता ही नहीं एक समय बाद ये लुप्त हो जाएंगे  और उनमे  इतने उच्च कोटि के साधनाए ऐसी साधनाए जो केवल २ मिनट में अपना प्रभाव  दिखा देती है|  ऐसी साधना जो एक दृष्टि में सामने वाले को समाप्त कर दे,   ऐसी साधना अपने तो केवल सुनना है  पारद के माध्यम से पारे को स्वर्ण में परिवर्तित करने का क्रिया  लेकिन मै कह रहा हूँ  पथरो को भी स्वर्ण में रूपांतरण किआ जा सकता है | और निश्चित और प्रामाणिक रूप से किआ जा सकता है|  हमारे समाज की  ये विशेषता रही है  की जो साधनाए गोपनीय रही दुर्लभ रही उसको जरूर प्रकाशित  किया गया  गोपनीय रहने दिया नहीं  भले ही संजीविनी विद्या  का ज्ञान हो न किसी को लेकिन उससे सम्बंदित पुस्तके प्रकाशित करेंगे जरूर भले रावण ने कभी संजीविनी साधना की न हो लेकिन बतादेंगे रावण कृत संजीविनी साधना और साधना देखे तो बिलकुल अलग ही कुछ और ही दाल देते है खैर मूल बात ये है की पुस्तकों पर लिखी हुई साधनाए आवश्यक नहीं की वो  प्रामाणिक हो ही इसलिए पुस्तक से साधना सिद्ध कर नहीं सकते इसके लिए तो गुरु चाहिए ही तो मै अ अक्षर पर बोल रहा था की अ तो पूरा ब्रम्हांड ही है पुरे ब्रम्हांड को समझने के लिए केवल इस अक्षर को समझना होगा| 

और ॐ का दुशरा अक्षर है ऊ 

जिस प्रकार अ को ब्रम्हांड कहा गया है वही ऊ को आत्मस्वरूप कहा गया है|  आत्म कहा गया है, जो भी भीतर है वो ऊ है|  और हमारे अंदर पूरा ब्रम्हांड है जो कुछ आप बहार देख रहे है वो सब कुछ मनुष्य के शरीर  में भी उपस्थित  है और ये बात को हमारे ऋषि स्वीकर करते है जो कुछ बहार है वो सब कुछ अंदर भी है वो तो हमेशा से कहते आए है की भगवान को बहार  अंदर खोजो क्युकी वो तो तुम्हारे अंदर ही बैठा हुआ है | और जैसे ही ऊ की साधना करते है तो भीतर का ब्रम्हांड और बहार का ब्रम्हांड दोनों एक हो जाते है लेकिन इस बीच आपका शरीर है एक माया के तौर पर  बिल्कुल इसी तरह जैसे जल में कुंभ है और कुंभ में जल  अर्थात जो जल कुंभ में है कुंभ का अर्थ है घड़ा  वही जल कुंभ के बहार भी है  लेकिन दोनों समान्य  है लेकिन जैसे ही कुंभ ठूठेगा जल जल में मिल जाएगा और दोनों एक हो जीएंगे  ठीक इसी प्रकार बहार के ब्रम्हांड और भीतर के ब्रम्हांड में शरीर एक माया है जो संसार में बांधे रखती है माया है समाज है परिवार है आपके पुत्र इत्यादि इत्यादि लेकिन ऊ  साधना से अपने आप में वो माया रह नहीं पाती वो टूट जाती है   जिस समय ऐसा होता है अंदर का ब्रम्हांड और बहार का ब्रम्हांड एक हो जाते है बहार का ब्रम्हांड आपके भीतर का एक अंग बन जाता है | और आप बहार के ब्रम्हांड का एक भाग बन जाते है और इस अवस्था पर पंहुचा हुआ योगी अपने भीतर पुरे ब्रम्हांड को दिखा सकता है वो साक्षात्कार करवा सकता है ऊ तो स्वयं को आत्मा को जानने की साधना है माया को तोड़ने की साधना है |

और ॐ  का तीसरा अक्षर है म 

म  शब्द बना है अहम् से मै, मै ही सब कुछ हूँ  म तो अपने  आप  में समस्त शक्तियों का केंद्र बिंदु है हर प्रकार  के  सामर्थ्य का केंद्र है और इन तीनो का सम्मलित रूप ॐ है | 

अब आपको ॐ सब्द का मूल महत्त्व पता चल गया होगा  अब जब भी  आप इस सब्द का उच्चारण करेंगे तो बिलकुल नवीन दृश्टिकोण से देखते हुए करेंगे की इस छोटे से अक्षर का इतना बढ़ा महत्त्व भी हो सकता है|  जो सब लोग ज्ञान देते चले आ रहे है की ॐ ये है वो है लेकिन मूल अर्थो तक तो कोई पहुंच पाया नहीं लेकिन मैंने वही एक ही बात  आपके सामने रखा नहीं|  मैंने तो बुल्कुल ॐ को नवीन दृष्टि से समझाया और बताने का प्रयास किया है की लोग इन अर्थो को भूल न जाए खैर ये तो ॐ की बात थी हर शब्द का हर एक मंत्र का  अपना विन्यास होता है|  ऊपर मैंने कहा था की मंत्र का सीधा प्रभाव पढ़ता है  अगर सही ढंग से उसको किया  जाए तब लेकिन प्रारंभ में साधनो में असफलता देखने को मिलती है कारण की कई कर्मो के बंधन सामने आ जाते है | अब जब तक ये समाप्त होंगे नहीं साधना सिद्ध होगी नहीं | या तो अब इसको समाप्त करे या गुरु उन कर्मो को शिष्यों के कर्मो को अपने ऊपर ले तब कही जा कर साधना सिद्ध होती है |

खैर मुझे ॐ शब्द का पूर्ण रूप से वर्णन करना था   मैंने किया कही न कही  माता पराशक्ति  की कृपया रही गुरूजी की कृपया भी निश्चित है ही जिसकी वजह से  इतने गोपनीय गोपनीय मंत्र साधनाए मुझे प्राप्त हुई है इनके योग्य समझा कई लोग को अध्यात्म को ढोंग समझते है ये उनके अपने कर्म है जिसका फल उनके सामने प्रत्यक्ष है जीवन में केवल भौतिकता ही पूर्णता नहीं कहलाता और समय  तो  निरन्तर गातीशील है ही मृत्यु की और ले जाने के लिए| एक  क्षण भी विलम्ब नहीं हो रहा निरन्तर मृत्यु की और  व्यक्ति बढ़ता जा रहा था उसे एक बार रुक के सोचने की आवश्यकता है की क्या जीवन में  जिस प्रकार से हम यहाँ आए उसी प्रकार से सो जायेंगे चिता पर क्या हम उस मार्ग पर नहीं चल सकते जहा अमृत है मृत्यु हो ही नहीं मृत्यु से आंख में आंख मिलाकर बात कर सके की जब मेरी इक्षा होगी तब ही मै सोऊंगा और तुम मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते |

जब यम ऋषि मार्कंडे को लेने आए तो मार्कंडे ने कहा यम तुम मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते क्युकी मैं  भगवन मृत्युंजय भगवान् शिव  के सरण में हूँ |   ऐसे मार्ग तो केवल साधना ही  है जहा मृत्यु है ही नहीं भौतिकता तो नष्ट होने वाली चीज़ ही  है मै अपने शब्दों  यही पर रोकता हुआ इस पत्र का समापन करता हूँ अन्यथा मै  तो तो  बोलता ही  चला जाऊंगा | अंत में फिर माता पराशक्ति  और  गुरूजी के श्री चरणों में मेरा प्रणाम है | 

शिष्य अभिषेक कुमार

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