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ज़्वर या बुखार की उत्पत्ति भाग 1

ज्वर रोगोंका राजा है संसारमें, परमात्माने जितने रोगोंकी सृष्टि की है, उनमें ज्वर सबसे बलवान् और सवका राजा है। यों तो मनुष्यके प्राण-नाश करनेवाले, उसे भयङ्कर कष्ट देनेवाले क्षय, यक्ष्मा, गुल्म, अर्श, भगन्दर, उन्माद, प्रमेह, अपस्मार–मृगी प्रभृत्ति अनेक रोग हैं; पर ज्वरकी समता करनेवाला, उपद्रव-पर-उपद्रव पैदा करनेवाला, अनेक प्रकारके रोगोंका जन्म देनेवाला, चिकित्सामें बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ उपस्थित करनेवाला, जन्मकालसे मरणकाल तक प्राणीके साथ रहनेवाला और रोग नहीं है; इसीसे ज्वरको सभी प्राचीन मुनियोंने “रोगराज” कहा है। “सुश्रुत उत्तरतन्त्र” में लिखा है:’जन्मादौ निधने चैव प्रायो विशति देहिनः ।

अतः सर्वविकाराणामयं राजा प्रकीर्तितः ॥ “पैदा होनेके समयसे मरनेके समय तक ज्वर प्रायः प्राणीके शरीर में रहता है, इसीसे ज्वरको सब रोगोंका राजा कहा है।” “चरक” में लिखा है-“जीवके जन्म लेनेके समय ज्वर रहता हैं और उसके

मरनेके समय भी ज्वर रहता है। जन्मकालमें ज्वर रहता है, इसीसे

प्राणी अपने पूर्व जन्मकी बात भूल जाता है। शेषमें, उधर ही प्राणियोंके प्राण नाश करता है।” दुनियामें यह बात मशहूर है, कि कोई रोग क्यों न हो, देह छूटते समय ज्वर आ ही जाता है, इसीसे प्राणी उस समय जो भयङ्कर दृश्य देखता है, उसका वर्णन नहीं कर सकता। ज्यरके वेगके मारे मनुष्य बेहोश हो जाता है, गला रुक जाता है, जवान बन्द हो जाती है; उस समय यदि वह कुछ कहना भी चाहता है तो कह नहीं सकता। मृत्यु-समय ज्वर होता है, इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं । “हारीत संहिता” में लिखा है:

ज्वरेण मृत्युर्विज्ञेयो न मृत्युः स्याज्ज्वरं विना । “ज्वरसे मृत्यु होती है, विशेषकर ज्वर विना मृत्यु नहीं होती।”

मनुष्य ही ज्वरको सह सकता है ज्वर सभी प्राणियोंको होता है; पर मनुष्योंके सिवा और प्राणी इसका वेग ,नहीं सह सकते । कर्मफलोंसे मनुष्य देवत्व लाभ करता है। जब उसके पुण्यकर्मों का अन्त हो जाता है, तब वही स्वर्गसे गिरकर मनुष्य-देहमें आता है; इसलिये मनुष्यमें देवांश रहता है। उस पहलेके देवांशके कारण ही, मनुष्य ज्वरके भयानक वेगको सह सकता है। पशु-पक्षी आदि और प्राणी ज्वरको नहीं सह सकते । यदि उनको ज्वर आता है, तो उनकी मृत्यु हो ही जाती है। गाय, भैंस और घोड़ा-हाथीमें ज्वर असाध्य समझा जाता है। मनुष्योंमें ज्वर कष्टसाध्य, किन्तु और जीवों में प्राणनाशक ही समझा जाता है।

ज्वर पूर्वजन्मके पापोंका फल है “चरक” में लिखा है-“ज्वर निदपि प्राणीको नहीं आता । जिन्होंने पहले जन्ममें पापकर्म या बुरे कर्म किये हैं, उन्हींको ज्वर सताता है: इसीसे ज्वरको ज्वर, क्षय. तम. पाप और मृत्यु कहते हैं।”

“हारीत-संहिता” में लिखा है-अधिक मिहनत करने, कसरत न करने, चिन्ता करने, शोक करने, भय करने, क्रोध करने एवं औषधियोंकी गंध और विशेषकर, धातुक्षयसे, कोठेकी अग्निको निकालकर, त्वचा में रहनेवाले रक्त-पित्त ज्वरको पैदा करते हैं। उस ज्वरसे मन्द ज्वर होता है। मन्द ज्वरसे अति मन्द ज्वर होता है। उस बहुत ही बारीक ज्वरमें रोगी, ज्वरको ज्वर.न समझकर खट्टी चीजें ज़ियादा खाता है, तो उसे कामला रोग हो जाता है। कामलासे हलीमक पैदा ‘ होता है। हलीमकसे पाण्डु-पीलिया होता है। राजरोगसे सूजन, सूजन से उदररोग, उदर रोगसे वातगुल्म-वायुगोला, वातगुल्मसे श्वास और शूल रोग होता है। शूलसे मन्दाग्नि और मन्दाग्निसे स्वरभेद होता है। मतलब यह कि, ज्वरसे इन सब रोगोंकी उत्पत्ति होती है और अन्तमें अरसे मृत्यु होती है। और भी कहा है-ज्वरसे रक्त-पित्त होता है। ज्वर और रक्त-पित्तसे श्वास होता है । दाह बढ्नेसे जठर रोग होता है । जठर रोगसे सूजन होती है। अर्श या बवासीरसे पेटमें दर्द और गोला होता है। जुकामसे खाँसी, और खाँसीसे क्षय होता है। इस तरह एक रोग दूसरे रोगका कारण होता है। पर ज्वर प्राय: अनेक रोगोंका कारण होता है। __ मतलब यह कि ज्वर वनराजकी तरह रोगराज है और दुश्चिकित्स्य है। इसकी चिकित्सामें बड़ी होशियारीकी जरूरत है। जरा-सी भूलसे ___घर बिगड़करं विषमज्वर अथवा सन्निपात अरका रूप धारण करता है।

सन्निपात अरसे कोई विरला ही भाग्यवान बचता है; क्योंकि सन्निपात ज्वर और मृत्युमें कोई भेद नहीं । जो सन्निपात ज्वर होनेपर आराम हो जाता है, वह नया जन्म लेता है।

ज्वर रुद्रकोपसे पैदा हुआ है।

“हारीत-संहिता” में लिखा है- .

दक्षाध्वरप्रशमनः कुपितोहि महेश्वरः । श्यासं मुमोच दयिता विधुरश्च तीव्रम् ।

तेन ज्वरोऽष्ट विधसम्भवतोऽष्टधास्यात् ॥ दक्ष प्रजापतिसे कुपित होकर महेश्वर-महादेवने, सतीके लिये, आठ श्वास छोड़े, इससे ज़्वर आठ प्रकारका हुआ। “सुश्रुत” में लिखा है: –

दक्षापमानसंक्रुद्धरुद्रनिःश्वाससम्भवः ।

ज्वरोऽष्टया पृथर द्वन्द्वसंघातागन्तुजः स्मृतः ॥ दक्षके अपमान करनेसे महादेवको क्रोध हुआ। उस क्रोधसे जो श्वास निकला, उसीसे पृथक्, द्वन्द्व, संघात और आगन्तुज आठ प्रकारके ज़्वर हुए।

नोट-ये पाठ प्रकार के ज्वर मुख्य ।। इनसे ज्वरोकी और बहुत-सी शान निकलती हैं। उन सबका वर्णन हमने प्रागे किया है। पाठकों को चाहिये, ज्वरोंके भेदोको अच्छी तरहसे याद कर लें ; क्योंकि बिना भेद याद हुए चिकित्सा हो नहीं सकती। “सुश्रुत उत्तरतन्त्र” में भी लिखा है:

रुद्रकोपाग्निसंभूतः . सर्वभूतप्रतापनः ।

तैस्तै मभिरित्येषां सत्वानां परिकीर्तितः॥ वर रुद्र यानी महादेव की कोपाग्नि से पैदा हुआ है और सब प्राणियों को सन्ताप देनेवाला है। अलग-अलग प्राणियोंमें वह अलगअलग नामों से पुकारा जाता है। जैसे; मनुष्यों में उसे ज्वर, हाथियोंमें पातक, घोड़ोंमें अभिताप, गायोंमें ईश्वर, भैंसोंमें दारिद्र, मृगोंमें मृगरोग, वकरी और भेड़ोंमें प्रलाप एवं कुत्तोंमें अर्ल।

“चरक’ में लिखा है कि क्रोधसे पित्त पैदा होता है; इसलिए, क्रोधसे पैदा होने के कारण ज्वरकी प्रकृति पैत्तिक यानी पित्तकी है।सरल भाषा मे समझिए गर्मी मे या गर्मी से होने वाले बुखार मे पित्त ज्वर कहलाता है अथवा यों समझिये कि .ज्वरका स्वभाव गरम है। इसलिए इसका इलाज पित्तशमन करनेवाले-शीतल द्रव्योंसे करना चाहिये-पित्त-विरोधी चिकित्सा अच्छी नहीं। महर्पि वाग्भट्ट लिखते हैं:

उष्मा पित्ताहते नास्ति ज्वरो नास्त्यूष्मणा विना । तस्मात् पित्त-विरुद्धानि त्यजेत् पित्ताधिकेधिकम् ।। गरमी विना पित्तके नहीं होती और ज्वर विना गरमीके नहीं होता, इसलिए घरमें “पित्तविरोधी चिकित्सा न करनी चाहिए; विशेषकर पित्तज्वरमें तो भूलकर भी पित्तका विरोध करनेवाली-गरम चिकित्सा न करनी चाहिए। लेकिन कफ़ज ज्वर मे इसके विरूद्ध ही किया जाएगा जिसका वर्णन मै बाद मे करूंगा l

खुलासा यह है, कि सभी प्रकारके घरों में पित्तका कोप होता है। अगर सभी ज्वरोंमें पित्तका कोप न होता, तो ज्वरोंमें गरमी न होती। पित्तसे ही ज्वरों में गरमीका सन्ताप रहता है; इसलिए सभी प्रकार के ज्वरों में ऐसी चिकित्सा करनी चाहिए, जिससे पित्त और भी कुपित न हो जाय । खासकर पित्तज्वरमें तो इस बातका बहुत ही खयाल रखना चाहिये। पित्तज्वरमें गरमी बड़े जोरसे रहती है, रोगीको दाहके मारे कल नहीं पड़ती, शरीर जलने लगता है। बुद्धिमान और अनुभवी वैद्य पित्तज्वरमें सुगन्धवाला,खस और चन्दनादि द्रव्योंके योगसे काढ़ा बना कर देते हैं; केले या कमलके पत्तों पर रोगीको सुलाते हैं; चन्दन और खस प्रभृतिसे छिड़काव किये हुए, खसकी टट्टियाँ लगे हुए, चन्द्रमाकी

किरणोंसे शीतल हुए घरमें पित्तवरवालेको रखते हैं; नाभि पर काँसीका वर्तन रखकर शीतल जलकी धारा देते हैं; किन्तु नासमझ वैद्य सभी घरों में और पित्तज्वरमें भी, शीत आ जानेके भयसे, रोगीको गरम घरमें रखते हैं; उसे गरम कपड़ोंसे ढक देते हैं; घरके दरवाजे और खिड़कियोंको वन्द करा देते हैं तथा शीतप्रधान ज्वरों में देने योग्य गरम काढ़े देते हैं। नतीजा यह होता है, कि गरम ही गरम इलाज करनेसे सन्निपात घर हो जाता है और रोगी परमधाम की राह लेता है। ___ मामूली कायदा यह है कि, गरमी से पैदा हुए रोगों में सर्द और सर्दीसे पैदा हुए रोगों में गरम दवा दी जाती है; पर डाक्टरोंकी तरह सिर पर वर्फ रखाना अथवा हकीमोंकी तरह एकदम शीतल दवा देना भी अच्छा नहीं है । पित्तमें जिस तरह गरम दवा देना अच्छा नहीं; उसी तरह अधिक सर्दी पहुँचाना भी बुरा है। ऐसी चिकित्सा भी न करनी चाहिये, जिससे सिर पर गरमी चढ़ जाय और ऐसी भी न करनी चाहिये, जिससे शीत आ जाय । ज्वरमें खूब सोच-समझकर, जहाँ जैसी जरूरत हो, वहाँ वैसी ही, चिकित्सा करनी चाहिये। पित्तज्वरमें तो पित्तका लिहाज़ रखना ही चाहिये; किन्तु संसर्गज ज्वरों में भी पित्त पर ही पहले ध्यान देना चाहिये। “सुश्रत उत्तरतन्त्र” में लिखा है

निहरेत् पित्तमेवादौ ज्वरेषु समवायिपु ।

दुर्निवारतरं तद्धि ज्वरार्तेपु विशेषतः ॥ ___ संसर्गज ज्वरों में पहले पित्तको शमन करनेवाली क्रिया करनी चाहिये; क्योंकि ज्वर-पीड़ित मनुष्यों में, विशेप कर, पित्त ही कठिनाई से काबू में आता है। ..

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