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12 ज्योतिर्लिंगों की पौराणिक और तांत्रिक कथाएं अघोरा तांत्रिक भाग 2

नमस्कार दोस्तों धर्म रहस्य चैनल पर आपका एक बार फिर से स्वागत है। पिछली बार हमने अघोरा नाम के एक अघोरी की प्रथम यात्रा ज्योतिर्लिंग को जाना था। अब उसकी आगे की यात्रा के विषय में जानते हैं। जब अघोरा दूसरे ज्योतिर्लिंग की तरफ बढ़ा तो उसे यह बात पता थी कि उसे अब क्या करना है इसलिए देर ना करते हुए वह आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर दक्षिण का कैलाश कहे जाने वाले श्री शैल पर्वत पर श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग पर पहुंचा। जिसका वर्णन वहां के?प्रसिद्ध मठाधीश ने उसे कह सुनाया। उन्होंने कहा, महाभारत शिवपुराण, पद्म पुराण आदि ग्रंथों में इस स्थान की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। पुराणों में इस ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार से वर्णित की गई है। एक समय की बात है। इस ज्योतिर्लिंग की कथा पुराणों में इस प्रकार वर्णित है। एक बार की बात है, भगवान शिव के दो पुत्र श्री गणेश और श्री कार्तिकेय स्वामी आपस में विवाह के लिए लड़ने लगे। सभी की जिद थी कि मैं पहले शादी कर लूं।

उन्हें लड़ते-झगड़ते देख भगवान शंकर और माता भवानी ने कहा- तुम में से जो पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर यहां वापस आएगा, उसका विवाह पहले होगा। अपने माता-पिता से यह सुनकर, श्री कार्तिकेय स्वामी, अपने वाहन, मयूर पर बैठे, तुरंत पृथ्वी की परिक्रमा के लिए दौड़े। लेकिन गणेश के लिए यह कार्य बहुत कठिन था। एक, उनका शरीर स्थूल था, दूसरा उनका वाहन भी चूहा-चूहा था। भला, वह दौड़ में स्वामी कार्तिकेय की बराबरी कैसे कर सकता था?

लेकिन उनकी बुद्धि उतनी ही सूक्ष्म और तेज थी, जितनी उनकी काया स्थूल थी। उन्होंने तुरंत पृथ्वी की परिक्रमा करने का एक आसान तरीका खोज लिया, सामने बैठे माता-पिता की पूजा करके उनकी सात परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा का कार्य पूरा किया। उनका यह कार्य शास्त्र-अनुमोदित था-

पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रक्रान्तिं च करोति यः ।
तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्‌ ॥

जब तक स्वामी कार्तिकेय पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे, तब तक गणेश का विवाह ‘सिद्धि’ और ‘बुद्धी’ नाम की दो बेटियों से हो चुका था और उन्हें ‘क्षेम’ और ‘लाभ’ नाम के दो पुत्र भी हुए थे। यह सब देखकर स्वामी कार्तिकेय बहुत क्रोधित होकर क्रौंच पर्वत पर चले गए। उन्हें मनाने के लिए माता पार्वती वहां आईं। वहां पहुंचने के बाद भगवान शंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए और तभी से मल्लिकार्जुन-ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। सबसे पहले उनकी मल्लिका के फूलों से पूजा की गई। मल्लिकार्जुन नाम प्राप्त करने का यही कारण है।

एक और कहानी यह भी बताई जाती है कि किसी समय इस चट्टान पर्वत के पास राजा चंद्रगुप्त की राजधानी थी। किसी विशेष विपदा की रोकथाम के लिए उनकी एक पुत्री महल से निकलकर इस पर्वतीय राजा के आश्रम में आ गई और यहीं गोपियों के साथ रहने लगी। उस कन्या के पास एक बहुत ही शुभ लक्षरा सुंदर श्यामा गाय थी। रात में कोई उस गाय का दूध चुरा लेता था।

एक दिन संयोगवश राजकुमारी ने चोर को दूध निकालते हुए देखा और गुस्से में चोर की ओर भागी, लेकिन गाय के पास पहुंचकर उसने देखा कि शिवलिंग के अलावा और कुछ नहीं है। कुछ समय बाद राजकुमारी ने उस शिवलिंग पर एक विशाल मंदिर बनवाया। यह शिवलिंग मल्लिकार्जुन के नाम से प्रसिद्ध है। शिवरात्रि के अवसर पर यहां विशाल मेला लगता है।

इस मल्लिकार्जुन-शिवलिंग की पूजा और पूजा करने वाले भक्तों की सभी सात्विक मनोकामनाएं पूरी होती हैं। उन्हें भगवान शिव के चरणों में अटूट प्रेम है। वे भौतिक, दिव्य, भौतिक सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्त हो जाते हैं।

इस प्रकार से उन्होंने उस स्थान पर इस कथा को सुना था। अब अघोरा ने मल्लिकार्जुन योगिनी की उपासना उस स्थान पर की और उसने योगिनी को कुछ महीने की साधना में सिद्ध कर लिया। उस योगिनी की कृपा से अब दूसरे ब्राह्मण की सद्गति हुई और वह मुक्त हो गया। उसने जाते-जाते कहा, आप यहां से महाकालेश्वर जाइए और? मेरे सगे भाई की भी मुक्ति करवाइए इस प्रकार अब! अघोरा तीसरे महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की ओर बढ़ा।अपनी मेहनत से उसने इस परम पवित्र ज्योतिर्लिंग पर पहुंचकर जो कि मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर में शिप्रा नदी के तट पर। उज्जैनी नाम से विख्यात था। इसे अवंतिकापुरी भी कहते थे।यह भारत की परम पवित्र शब्द प्रयोग से एक था। यहां के प्रमुख मठाधीश से उन्होंने यहां की कहानी सुनी। और उनसे जाना तब उन्होंने बताया।महाभारत, शिव पुराण और स्कंद पुराण में महाकाल ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है।

इस ज्योतिर्लिंग की कथा पुराणों में इस प्रकार वर्णित है- प्राचीन काल में राजा चंद्रसेन उज्जयिनी में राज्य करते थे। वे परम शिव भक्त थे। एक दिन श्रीकर नाम का एक पाँच वर्षीय चरवाहा अपनी माँ के साथ वहाँ से गुजर रहा था। राजा की शिव की पूजा देखकर वह बहुत चकित और जिज्ञासु हुआ। वह स्वयं समान सामग्री से शिव की पूजा करने के लिए उत्सुक हो गया।

सामग्री का साधन न मिलने पर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया। घर आकर उसी पत्थर को शिव के रूप में स्थापित कर फूल, चंदन आदि से अत्यंत भक्ति भाव से उनकी पूजा करने लगे। माँ उसे भोजन के लिए बुलाने आई, लेकिन वह पूजा छोड़कर उठने को तैयार नहीं थी। अंत में माँ ने हड़बड़ा कर उस पत्थर के टुकड़े को उठाकर फेंक दिया। इस बात से बहुत दुखी होकर बालक जोर-जोर से भगवान शिव को पुकारने लगा। अंत में रोते-रोते वह बेहोश हो गया।

बच्चे की इस भक्ति और अपने प्रति प्रेम को देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। जैसे ही बच्चे को होश आया और उसने अपनी आँखें खोलीं, तो उसने देखा कि उसके सामने सोने और रत्नों से बना एक बहुत ही भव्य और विशाल मंदिर खड़ा है। उस मंदिर के अंदर एक बहुत ही चमकीला, जीवंत, तेजस्वी ज्योतिर्लिंग है। बच्चा खुशी और खुशी से भर गया और भगवान शिव की स्तुति करने लगा।

जब मां को यह खबर मिली तो वह दौड़ी और अपने प्रिय लाल को गले से लगा लिया। वहां पहुंचकर राजा चंद्रसेन ने भी उस बालक की भक्ति और सिद्धि की सराहना की। धीरे-धीरे वहां काफी भीड़ जमा हो गई। इसमें हनुमानजी उस स्थान पर प्रकट हुए। उन्होंने कहा- ‘मनुष्य! जल्दी फल देने वाले देवताओं में सबसे पहले भगवान शंकर हैं। इस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर उसने उसे ऐसा फल दिया है, जिसे महान ऋषि-मुनि करोड़ों जन्मों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं कर सके।

इस गोप-बालक की आठवीं पीढ़ी में ईश्वरीय आत्मा नंदगोपा का जन्म होगा। द्वापर युग में, भगवान विष्णु कृष्ण अवतार लेंगे और वहां विभिन्न लीलाएं करेंगे। इतना कहकर हनुमानजी गायब हो गए। उस स्थान पर नियमानुसार भगवान शिव की आराधना करके अंत में श्रीकर गोप और राजा चंद्रसेन शिवधाम चले गए।

इस ज्योतिर्लिंग के बारे में एक और कहानी इस प्रकार बताई गई है- एक बार अवंतिकापुरी में एक बहुत ही शानदार ब्राह्मण, वेदपति तपोनिष्ठ रहते थे। एक दिन उसकी तपस्या भंग करने के लिए दुशान नाम का एक अत्याचारी राक्षस वहां आया। ब्रह्माजी से वरदान पाकर वह बहुत शक्तिशाली हो गया। उसके अत्याचारों को लेकर चारों ओर बवाल मच गया।

ब्राह्मण को संकट में देखकर जीवों का कल्याण करने वाले भगवान शंकर वहां प्रकट हुए। उसने उस क्रूर अत्याचारी दानव को केवल एक चिल्लाहट के साथ जलाकर राख कर दिया। भगवान वहाँ एक हुंकार के साथ प्रकट हुए और इसलिए उनका नाम महाकाल पड़ा। इसलिए सबसे पवित्र ज्योतिर्लिंग को ‘महाकाल’ के नाम से जाना जाता है।दूसरे शिवलिंग का भी प्रभाव अघोरा पर पड़ा और अघोरा अब धीरे-धीरे अपने उन कोढ़ों से मुक्त होता जा रहा था। अब अगली यात्रा में उसने ओम्कारेश्वर ज्योतिर्लिंग जाने की सोची!यह ज्योतिर्लिंग उस वक्त बहुत ही अधिक प्रसिद्ध था।यह ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश में पवित्र नदी नर्मदा के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नर्मदा के दो धाराओं में विभाजित होने के कारण बीच में एक द्वीप बन गया है। इस द्वीप को मांधाता-पर्वत या शिवपुरी कहा जाता है। नदी की एक धारा इस पर्वत के उत्तर और दूसरी दक्षिण की ओर बहती है।

दक्षिण-पूर्वी धारा को मुख्य धारा माना जाता है। इसी मंधाता-पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर-ज्योतिर्लिंग का मंदिर स्थित है। पूर्व में महाराज मांधाता ने इस पर्वत पर अपनी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न किया था। इस कारण इस पर्वत को मान्धाता-पर्वत कहा जाने लगा।

इस ज्योतिर्लिंग-मंदिर के अंदर दो कक्षों से गुजरना पड़ता है। अंदर अंधेरा होने के कारण यहां रोशनी लगातार जलती रहती है। ओंकारेश्वर लिंग मानव निर्मित नहीं है। प्रकृति ने ही इसे बनाया है। इसके आसपास हमेशा पानी रहता है। संपूर्ण मांधाता-पर्वत को भगवान शिव का ही रूप माना जाता है। इसलिए इसे शिवपुरी भी कहा जाता है, लोग इसकी पूजा भक्ति भाव से करते हैं।

कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां विशाल मेला लगता है। यहां लोग भगवान शिव को चने की दाल चढ़ाते हैं, रात में शिव आरती का कार्यक्रम बड़े ही धूमधाम से होता है। तीर्थयात्रियों को इसे अवश्य देखना चाहिए।

इस ओंकारेश्वर-ज्योतलिंग के दो रूप हैं। एक को ममलेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह नर्मदा के दक्षिणी तट पर ओंकारेश्वर से कुछ ही दूर है, फिर भी दोनों को एक ही गिना जाता है।

लिंग के दो रूपों की कथा पुराणों में इस प्रकार है- एक बार विंध्यपर्वत ने छह माह तक पार्थिव अर्चना के साथ भगवान शिव की आराधना की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भूतभवन शंकरजी वहाँ प्रकट हुए। उसने विंध्य को अपना वांछित वरदान दिया। विंध्याचल के आशीर्वाद के अवसर पर कई ऋषि-मुनि भी वहां पहुंचे। उनके अनुरोध पर, शिव ने ओंकारेश्वर नाम के अपने लिंग को दो भागों में विभाजित किया। एक का नाम ओंकारेश्वर और दूसरे का अमलेश्वर था। दोनों लिंगों का स्थान और मंदिर अलग-अलग होते हुए भी दोनों की शक्ति और रूप एक ही माने जाते हैं।

शिव पुराण में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्री ओंकारेश्वर और श्री ममलेश्वर के दर्शन करने का पुण्य नर्मदा-स्नान का पवित्र फल भी बताया गया है। प्रत्येक व्यक्ति को इस क्षेत्र का भ्रमण अवश्य करना चाहिए। भगवान ओंकारेश्वर की कृपा से सांसारिक और दिव्य दोनों प्रकार के सर्वोत्तम फलों की प्राप्ति आसानी से हो जाती है। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के सभी साधन उसके लिए आसानी से सुलभ हैं। अंततः वह भगवान शिव के परम धाम लोकेश्वर महादेव को भी प्राप्त कर लेता है।

बिना किसी कारण के भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान शिव हैं। फिर यहां आकर दर्शन करने वालों के सौभाग्य का क्या कहें? उनके लिए सदा-सदा के लिए सभी प्रकार के सद्गुणों के मार्ग खुल जाते हैं।इस प्रकार से उस स्थान पर अब अघोरा ने। ओंकार शब्द का उच्चारण करते हुए अपने गुप्त मंत्रों के माध्यम से। ओंकार योगिनी का स्मरण किया और उनकी साधना करने लगा। उनके दर्शन से एक असीम शांति और मोक्ष की प्रबल इच्छा अघोरा के अंदर आ चुकी थी। अघोरा ने उन्हें प्रणाम किया और साथ ही एक और पुण्य आत्मा ब्राह्मण की मुक्ति हुई। अब उन्हें अपनी अलग और लंबी यात्रा करनी थी क्योंकि! इस स्थान से बहुत दूर उन्हें जाना था और पहुंचना था केदारनाथ ज्योतिर्लिंग के पास। कैसे वह पहुंचे और आगे कथा में क्या घटित हुआ जानेंगे अगले भाग में? तो अगर आज का पोस्ट आपको पसंद आया है और भगवान शिव की इन ज्योतिर्लिंगों की महिमा! के माध्यम से आप ने उनका पूजन किया है तो अवश्य ही इस वीडियो को लाइक करें और शेयर करें हमारे चैनल को आप सभी का दिन मंगलमय हो। धन्यवाद।

12 ज्योतिर्लिंगों की पौराणिक और तांत्रिक कथाएं अघोरा तांत्रिक भाग 3

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