द्वापर युग में महिर्ष पराशर के पुत्र के रूप में सत्यवती के गर्भ से तेजस्वी यिोगराज वेदव्यास ने जन्म लिया। व्यासजी त्रिकालज्ञानी थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। एक दिन वे सूर्योदय के समय सरस्वती नदी में आचमन-स्नान करके एकांत में नदी किनारे पिवत्र स्थान पर बैठे चिंतन कर रहे थे। उन्होंने ध्यान लगाया तो लोगों को भिौतक कष्टों से दुःखी देखा। प्रजाजन को किसी-न-कसी अभाव का कष्ट था। उनमें नास्तिकता बढ़ती जा रही थी। वे भाग्यहीन दिखाई देने लगे थे।
वेदव्यास ने सोचा लोकिहत कैसे हो? उनके मन में आया कि चातुर्होत्र यज्ञ द्वारा मानव हृदय शुद्ध एवं पवित्र हो जाता है। उन्होंने जनिहत का ध्यान रखकर इस महान् यज्ञ को सरल बनाया। इसके चार भाग कर दिए–ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। इनके अतिरिक्त इतिहास एवं पुराण को उन्होंने पाँचवाँ वेद बनाया। इन वेदों के भी विभन्न भाग बनते गए। समस्त मानव जाति को इसका लाभ प्राप्त कराने हेतु व्यासजी ने इन्हें अधिक से अधिक सरल बनाया। महाभारत की रचना करके व्यासजी ने समस्त मानवजिात का कल्याण किया। यह सब करने के बाद भी महिर्ष को तृप्ति नहीं हुई। वे अनिश्चय की मनःस्थिति में ही रहे।
व्यासजी सरस्वती नदी के िकनारे एकांत में जाकर बैठते थे। उनको अब भी संतोष नहीं था। वे िनरंतर जनकल्याण की चिंता करते रहते थे। वे मन-ही-मन विचार करने लगे—’मैंने महाभारत की रचना की। निस्पृह भाव से वेदों को भी सरल बनाकर मानवजिात को धर्म, कर्म एवं कल्याण के मार्ग बता दिए, फिर भी मेरा मन असंतुष्ट है। मुझे अपूर्ण सा लग रहा है।’ चिंतामग्न महिर्ष नदी के प्रवाह की ओर देखते हुए बैठे थे। उसी समय ‘नारायणनारायण’ कहते देविर्ष नारद वहाँ प्रकट हुए।
व्यासजी ने आदरपूर्वक नारदजी की पूजा की। आग्रहपूर्वक उन्हें बिठाया। नारदजी ने उनकी चिंताग्रस्त मुद्रा देख ली थी। वे बोले, “महाभाग महिर्ष व्यास! आपने महाभारत की रचना करके अद्भुत कार्य किया है। आप बधाई के पात्र हैं। पर आप तो जैसे िकसी शोक में पड़े िदखाई दे रहे हैं।”
वीणापिाण नारद की बात सुनकर व्यासजी ने कहा, “मुने! आप साक्षात् ब्रह्मा के पुत्र हैं। आप तो सबके मन की बात जानते हैं, मेरी व्यथा को भी आप जान गए हैं। आप ही मुझे बता क मुझमें क्या कमी रह गई है!”
नारद ने कहा, “महिर्ष! आप परमज्ञानी हैं, आपमें कोई कमी नहीं है; किंतु आपने भगवान् के िनर्मल यश का गान नहीं किया है। अब आप भगवान् कृष्ण की लीला का गान करें, आपको शीत मिलेगी। भक्ति से आपके ज्ञान को पूर्णता मिलेगी। अपने ज्ञानभंडार में ईश्वरभक्ति मिला लिीजए. इससे जन-कल्याण होगा।”
यह कहकर नारद जाने लगे। व्यासजी ने पूछा, “देविष! आप विश्व परिक्रमा करते-करते भगवान की लीला का प्रचार करते हैं, इसका क्या रहस्य है?” नारद हँसकर रुक गए। उन्होंने कहा, “मेरा पूर्वजन्म का इितहास।” व्यासजी ने कहा, “आप अपने पूर्वजन्म की कथा सुना दें।”
नारद ने कहा, “व्यासजी! मैं पूर्वजन्म में एक दासी का पुत्र था। वह ब्राह्मणों के घरों में साफ-सफाई तथा बरतन माँजने का काम करती थी। चातुर्मास में ब्राह्मण लोग पूजा-पाठ एवं यज्ञ करते थे। उस समय मैं उनकी सेवा में रहता। बालक होते हुए भी मैं कोई चंचलता नहीं करता था। खेलकूद से दूर रहकर मैं उनकी आज्ञा का पालन करता था और कम बोलता था। मेरी सेवा से पंडित प्रसन्न होते थे। अपने पात्रों में बचा अन्न वे मुझे दे देते थे। उनके
सत्संग में रहने के कारण मेरा हृदय शुद्ध हो गया। उन्हीं की तरह भजन-पूजन में मेरी रुचि बढ़ने लगी। मैं प्रतिदन भगवान् श्रीकृष्ण की कथाएँ सुनता। महात्माओं के कीर्तन-भजन सुनने से मेरे मन में भी कृष्णभक्ति पैदा हो गई।”
पल भर रुककर नारद ने कहा, “महात्माओं के प्रस्थान के बाद मैं अपनी माता के पास आ गया। एक दिन प्रात:काल मेरी माता गौ का दूध दुहने बाहर निकली। सर्प पर पैर पड़ गया। सर्पदंश से मेरी माता की मृत्यु हो गई। मुझे भगवान् की प्रेरणा थी। मैं घर सेनिकला और उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा। पहाड़-मैदान, नदी-नाले पार करता मैं एक भयंकर जंगल में पहुँच गया। मेरा शरीर थक गया था। भूख-प्यास सता रही थी। वहाँ एक झरना दिखाई दिया। मैंने वहीं स्नान किया, जल पिया और एक पीपल के नीचे बैठ गया। मेरी थकावट उतर गई थी। मैंने भगवान् को नमस्कार किया और उनका नाम स्मरण करने लगा। मेरी आँखों में आँसू आने लगे। हृदय में भगवान् का स्वरूप प्रकट हुआ। मैं मोहत हो गया। आँखें खोलकर मैं उसी स्वरूप को ढूँढ़ने लगा। मैं भाग-भागकर भगवान् को पुकारता रहा। मुझे ज्ञान हुआ कि अब मुझे सारी मोह-माया छोड़कर केवल भगवान् का कीर्तन करते रहना पीहए। मैं उसी स्वरूप मेंनिमग्न हो गया। कुछ समय के बाद मेरी मृत्यु हो गई। एक सहस्त्र चतुर्युगी बीत जाने पर जब ब्रह्मा जागे और सृष्टि-रचना करने लगे, तब उनके शरीर से मरीिच आिद ऋिषयों के साथ मैं भी प्रकट हो गया। पूर्वजन्म के संस्कार के प्रभाव से मैं भगवान् की भक्ति में डूबा रहा और इस जन्म में भी तीनों लोकों में बिना रोक-टोक विचरण करता हूँ और अखंड रूप से भगवान् का नाम स्मरण करता हुआ भ्रमण करता रहता हूँ।”
अपनी कथा सुनाकर देवर्षि नारद ने वीणा बजाते हुए वहाँ से प्रस्थान किया। महर्षि वेदव्यास ने नारद को बारंबार नमन करते हुए अपने आश्रम में जाकर भगवान् की लीला का वर्णन करनेवाले ‘श्रीमद्भागवत महापुराण’ की रचना प्रारंभ कर दी।