नागकेसर या नागचम्पा (वानस्पतिक नाम : Mesua ferrea) एक सीधा सदाबहार वृक्ष है जो देखने में बहुत सुंदर होता है। यह द्विदल अंगुर से उत्पन्न होता है। पत्तियाँ इसकी बहुत पतली और घनी होती हैं, जिससे इसके नीचे बहुत अच्छी छाया रहती है। इसमें चार दलों के बडे़ और सफेद फूल गरमियों में लगते हैं जिनमें बहुत अच्छी महक होती है। लकड़ी इसकी इतनी कड़ी और मजबूत होती है कि काटनेवाले की कुल्हाडियों की धारें मुड मुड जाती है; इसी से इसे ‘वज्रकाठ’ भी कहत हैं। फलों में दो या तीन बीज निकलते हैं। हिमालय के पूरबी भाग, पूरबी बंगाल, आसाम, बरमा, दक्षिण भारत, सिहल आदि में इसके पेड बहुतायत से मिलते हैं।
विविध नाम :
नागकेशर, केसरी, नागेश्वर, नागीय, नागपुष्प, पिंजर, पुष्परेचन,
फलक, फणिकेशर, राजपुष्प, हेम ।।
सामान्य परिचय :
यह बहुत ही पवित्र और प्रभावशाली वनस्पति है । इसका
तंत्र- शास्त्र में बहुत अधिक प्रयोग होता है । इसकी गणना सुगन्धित
और पूजा-पाठ के लिये पवित्र पदार्थों में की जाती है । अध्यात्म के
क्षेत्र में ‘नागकेसर’ को बहुत उच्च स्थान प्राप्त है । शिवजी को यह
बहुत अधिक प्रिय है । तान्त्रिक -साधना में भी इसके विविध प्रयोगों
का वर्णन मिलता है ।
उत्पत्ति एवं प्राप्ति-स्थान :
यद्यपि यह सामान्य वनस्पति है, फिर भी कहीं-कहीं जंगलों में
अपने-आप उगती है । शौकीन लोग इसके पौधे को अपने घरों में लाकर
गमले आदि में लगाते हैं। यदि पौधे से ‘नागकेसर’ केफूल प्राप्त न हो रहे हों तो पंसारी
की दुकान से आसानी से मिल सकते हैं । प्रयोग के लिये- साफ और बड़े-बड़े दाने बीनकर किसी डिब्बी में रख लेने चाहिये ।
स्वरूप :
इसका फूल- कालीमिर्च के समान गोल और घुण्डीनुमा होता है। इसके दाने में कबाबचीनी की भाँति डण्डी भी लगी हुई रहती है । फूल गुच्छों में फूलता है और पकने पर गेरू जैसे रंग का (मटमैले लाल
रंग का) हो जाता है।
गुण-धर्म :
यह पोषक, सौन्दर्य-वर्द्धक और कीटाणु-नाशक होता है ।नागकेसर के सूखे फूल औषध, मसाले और रंग बनाने के काम में आते हैं। इनके रंग से प्रायः रेशम रँगा जाता है। श्रीलंका में बीजों से गाढा, पीला तेल निकालते हैं, जो दीया जलाने और दवा के काम में आता है। तमिलनाडु में इस तेल को वातरोग में भी मलते हैं। इसकी लकड़ी से अनेक प्रकार के सामान बनते हैं। लकड़ी ऐसी अच्छी होती है कि केवल हाथ से रँगने से ही उसमें वारनिश की सी चमक आ जाती है। बैद्यक में नागकेसर कसेली, गरम, रुखी, हलकी तथा ज्वर, खुजली, दुर्गंध, कोढ, विष, प्यास, मतली और पसीने को दूर करनेवाली मानी जाती है। खूनी बवासीर में भी वैद्य लोग इसे देते हैं। इसे ‘नागचंपा’ भी कहते हैं।
तान्त्रिक प्रयोग
समृद्धिकारी शिव- पूजन – कहीं से अकीक पत्थर से निर्मित
नर्मदेश्वर शिवलिंग प्राप्त करें । ध्यान रहे कि उस शिवलिंग में कहीं
कोई- दरार, चटकाव, बिन्दु, भग्नता, छिद्र और विद्रूपता नहीं हो । उसे
अण्डाकार, सुडौल, चमकीला, चिकना होना चाहिये । यदि किसी
शिवलिंग पर कोई विशेष चिह्न हो तो और भी अच्छा है, चिह्न
इस प्रकार के हो सकते हैं-
- धारा लिंग- इस प्रकार के शिवलिंग में लम्बाई में धारियों
का घेरा पड़ा रहता है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि- इस लिंग पर
जल-धारा लहलहा रही है । - अर्द्धनारीश्वर- यदि कोई शिवलिंग दो रंग में है, और दो
समान भागों में उसका प्राकृतिक वर्ण-विभाजन है तो वह- अर्द्ध – नारीश्वर
शिवलिंग कहलाता है। ऐसी मान्यता है कि- ऐसा शिवलिंग शंकर-पार्वती
बना है तो उसे- चन्द्रमौलीश्वर कहते हैं । यह दुर्लभ होता है परन्तु
प्रभाव की दृष्टि से इसे परम समर्थ माना जाता है । यदि यह पारदर्शी
के युग्म रूप का प्रतीक होता है। - चन्द्रमौलीश्वर- यदि किसी शिवलिंग में कहीं सफेद रंग का
अर्दचन्द्राकार चिह्न (अर्दध-भाग पर या ऊपर की ओर आधा चन्द्रमा)
हो तो वह बहुत ही उत्तम माना जाता - चक्र लिंग- यदि किसी शिवलिंग में कहीं पर धारियों से
बना गोला-सा दिखाई पड़े जिससे वह ‘चक्र’ जैसा प्रतीत होता हो तो
उसे ‘चक्र लिंग’ कहते हैं । यह आसानी से नहीं मिलता है । - ज्योतिर्लिंग- किसी भी रंग में प्राप्त चमकीले शिवलिंग से।
यदि लाल रंग की सुन्दर आभा निकल रही हो तो उसे- ज्योतिर्लिंग
कहते हैं । यह बहुत ही अधिक दुर्लभ माना जाता है । ।
- तिलक लिंग- यदि किसी शिवलिंग के ऊपर तिलक जैसा
चिह्न हो तो वह- ‘तिलक-लिंग’ कहलाता है ।
इसी प्रकार से और भी शिवलिंग होते हैं । उन सबका नामकरण
उनके- रंग अथवा चिह्न के अधार पर किया जाता है । इनमें से
किसी भी प्रकार का शिवलिंग मिल जाये तो उसे विशेष सौभाग्यदायक
समझना चाहिये । यदि ऐसा शिवलिंग न मिले तो जो भी सामान्य
प्रतिमा मिल जाये, उसे घर ले आयें । शिवलिंग बहुत बड़ा लाने की
आवश्यकता नहीं होती है बल्कि छोटे-से शिवलिंग से भी कार्य सिद्ध
हो जाता है ।
आपने शिवलिंग भले ही किसी भी दिन प्राप्त किया हो लेकिन
उसकी स्थापना एवं प्रथम (पहली) पूजा सोमवार के दिन ही करनी
चाहिये । इसके बाद में प्रतिदिन पूजा आदि कर सकते हैं ।
सोमवार के दिन प्रात:काल ही स्नान आदि कर लें । फिर
शिवलिंग को स्नान करायें । फिर अपने पूजा-स्थान पर सफेद रंग का
कपड़ा बिछाकर उस पर शिवलिंग को स्थापित करें । शिवजी पर-
सफेद चन्दन, बेलपत्र, धतूरा, मदार के पुष्प, कनेर-पुष्प चढ़ाये जाते
हैं– इनमें से जो भी सामग्री मिल जाये, उसे चढ़ा दें । फिर इसके
बाद में ‘नागकेसर’ भी अर्पित करें । फिर धूप-दीप दें ।
इस प्रकार से, शिवजी का प्रतिदिन श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन करें
और प्रतिमा पर नित्य ‘नागकेसर’ चढ़ायें ।
नागकेसर अर्पित करने वाले वाले व्यक्ति पर भगवान शिव की
प्राप्त होती है ।
नागकेसर पोटली- एक नये और पीले रंग के वस्त्र में
नागकेसर, हल्दी, सुपारी, एक सिक्का, ताँबे का टुकड़ा या सिक्का.
चावल रखकर छोटी-सी पोटली बना लें । इस पोटली को अपने
पूजा-स्थान में शिवजी के सम्मुख रखकर धूप-दीप से पूजन करें और
ॐ नमः शिवाय मन्त्र का 101 बार जाप करे- ऐसा करने से यह
सिद्ध हो जायेगी। फिर इसे- अलमारी, तिजोरी, भण्डार आदि में कहीं
भी रख दें । इससे सुख-समृद्धि में अत्यन्त वृद्धि होती है ।
वशीकरण- ‘रविपुष्य-योग’ अथवा ‘गुरुपुष्य-योग’ अथवा अन्य
किसी शुभ-मुहूर्त में यह वस्तुयें एकत्रित कर लें – नागकेसर, चमेली
के फूल, कूट, तगर, कुमकुम और घी । फिर घी के अलावा अन्य
सभी पदार्थों को खरल में कूट लें । फिर उस मिश्रण को कपड़े से छान
लें और फिर इसमें घी मिलाकर चन्दन जैसा लेप बना लें। इसको काँच
की किसी स्वच्छ शीशी में भरकर रख लें
फिर प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करके और अपना पूजा-पाठ पूरा
करके इस लेप का तिलक अपने माथे पर लगायें । इससे चेहरे पर कुछ
ऐसी दिव्य आभा उत्पन्न हो जाती है, जो देखने वालों पर वशीकरण
का प्रभाव डालती है । लेकिन यह प्रयोग प्रतिदिन करना चाहिये
अवश्य ही कृपा होती है ।