१. क्या दो प्रकार की साधना एक साथ कर सकते है ?
उत्तर :- देखिये अगर आप जो साधना कर रहे है या करना चाहते है अगर वो दोनों साधना एक ही देवता की है तो एक साथ की जा सकती है | इसके साथ अगर आप कोई सात्विक साधना कर रहे है तो उसके साथ में किसी प्रकार की राजसिक साधना की जा सकती है, लेकिन तामसिक के साथ राजसिक साधना नहीं की जा सकती है और राजसिक साधना के साथ किसी और प्रकार की राजसिक साधना नहीं करना चाहिए |
२. अष्टांग योग क्या है ?
उत्तर :- महर्षि पतंजलि ने कहा था की जो चित्त है, आपका जो मन है वो एक जगह जगह टिकता नहीं और इस मन को एक जगह केंद्रित करना ही योग है, योग एक सात्विक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से आत्मा और शरीर को साधा जाता है | पतंजलि ने योग को ८ प्रकार में विभाजित कर दिया है और ये ८ प्रकार को ही अष्टांग योग के नाम से जाना जाता है अष्टांग का अर्थ है जिसके ८ अंग है, और ये ८ अंग इस प्रकार से है |
१. यम
यम भी पांच प्रकार के हैं। ये हैं:
अहिंसा: मन व वचन से किसी भी प्राणी को किसी तरह का कष्ट न पहुंचने की भावना अहिंसा है।
सत्यः सदैव सत्य का आचरण करना |
अस्तेयः मन, वचन, कर्म से चोरी न करना, दूसरे के धन का लालच न करना और दूसरे के सत्व का ग्रहण न करना अस्तेय है।
ब्रह्मचर्य: अन्य समस्त इंद्रियों सहित गुप्तेंद्रियों का संयम करना-खासकर मन, वाणी और शरीर से यौनिक सुख प्राप्त न करना-ब्रह्मचर्य है।
अपरिग्रहः अनायास प्राप्त हुए सुख के साधनों का त्याग अपरिग्रह है। अस्तेय में चोरी का त्याग, किंतु दान को ग्रहण किया जाता है। परंतु अपरिग्रह में दान को भी अस्वीकार किया जाता है। स्वार्थ के लिए धन, संपत्ति तथा भोग सामग्रियों का संचय परिग्रह है और ऐसा न करना अपरिग्रह।
२. नियम
नियम भी पांच प्रकार के हैं। ये हैं:
शौचः शरीर एवं मन की पवित्रता शौच है। शरीर को स्नान, सात्विक भोजन, षक्रिया आदि से शुद्ध रखा जा सकता है। मन की अंत:शुद्धि, राग, द्वेष आदि को त्यागकर मन की वृत्तियों को निर्मल करने से होती है।
संतोष: अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जो प्राप्त हो उसी से संतुष्ट रहना या परमात्मा की कृपा से जो मिल जाए उसे ही प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना संतोष है।
तपः सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वंद्वों को सहन करते हुए मन और शरीर को साधना तप है।
स्वाध्यायः विचार शुद्धि और ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्याभ्यास, धर्मशास्त्रों का अध्ययन, सत्संग और विचारों का आदान-प्रदान स्वाध्याय है।
ईश्वर प्रणिधान: मन, वाणी, कर्म से ईश्वर की भक्ति और उसके नाम, रूप, गुण, लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, मनन और समस्त कर्मों का ईश्वरार्पण ‘ईश्वर प्रणिधान’ है।
३. आसन:
४. प्राणायाम : प्राणो को नियमित रूप से संचालित करने की क्रिया को प्राणायाम कहते है |
५. प्रतिहार: प्रतिहार से तात्पर्य इंद्रियों पर अधिकार, मन की निर्मलता, तप की वृद्धि, दीनता का क्षय, शारीरिक आरोग्य एवं समाधि में प्रवेश करने की क्षमता प्राप्त होती है।
६. धारण: स धारयति इति धारण: “धारण से तात्पर्य आप जिसको धारण कर सके वो धारणा कहलाती है किसी एक चीज़ पर अपने चित्त को लगा देना |
७. ध्यान :- ध्यान का तात्पर्य है, ध्यान दो अक्षरों से बना है ध्या और न अर्थात ध्यान यानि चेतना का नहीं होना, अपने आप को भूल जाने की क्रिया को और किसी एक चीज़ पर अपनी एकाग्रता को लाने को ध्यान कहते है |
८. समाधि :- “समस्तम वै पूर्वाः सः अध्या सः समाधी” समाधी से तात्पर्य है की हम अपने अंदर के सारे चक्रो को जागृत कर के पूर्णतः अंदर से जागृत रहे मगर बाहर से बिलकुल सुप्त हो जाए, बाहर की कोई स्तिथि या वातावरण हम पर हावी न हो सके और हम अपनी चेतना को उस परम सत्ता से जोड़ कर उसमे एक एकार जो हो सके और जीवन को बहुत ऊंचा उठा सके, ऊर्ध्वा गामी पथ पर अग्रसर हो सके |