साधकों के प्रश्न और उत्तर बहुत जरूरी जानकारी 98
१. साधना और तपस्या मे क्या अंतर होता है ?
उत्तर:- अगर साधना की बात की जाए तो हम साधना के माध्यम से अपने शरीर को और विशेष प्रकार की शक्ति को साधने का प्रयास करते है | कहने का तात्पर्य है की अगर हम अप्सरा या यक्षिणी की साधना करते है तो उसको अनुकूल बनाने की क्रिया करते है जिससे वो हमारी सहायता कर सके एक प्रकार से साधनाओ का तातपर्य है अपनी समस्त इक्षाओं की पूर्ति करना | साधना से आप शक्ति को साधते तो जरूर है लेकिन साथ ही साथ आप अपने शरीर को, अपने मन को भी अपने वशीभूत करने में सक्षम हो जाता है क्युकी साधनाओ का प्रभाव मनुष्य के मन और मस्तिष्क पर भी पढ़ता है | अगर तपस्या की बात करे तो इसका केवल एक ही अर्थ होता है वो है अपने इष्ट की भक्ति करना | उनके चरणों में अपने आप को समर्पित करते हुए तब तक तप करना जब तक आपके इष्ट आपसे प्रसन्न होकर आपके सम्मुख नहीं आ जाए | यह आपके ऊपर है आप उसको तपस्या बना ले या साधना बना ले, तपस्या का एक ही अर्थ होता है अपने शरीर को तपाना |
२. आध्यात्मिक ऊर्जा, ब्रह्मांडीय ऊर्जा और कुंडलिनी ऊर्जा मे क्या अंतर है ?
उत्तर:- जब हम परमात्मा के सम्बंद में मंत्रो के माध्यम से, अपने कर्मो को माध्यम से तप करते है, पूजा करते है या साधना करते है तो उससे जो ऊर्जा आपके शरीर के अंदर बनती है और जो आपको परमात्मा से जोड़े उसको आध्यात्मिक ऊर्जा कहा जा सकता है | आध्यात्मिक ऊर्जा का उद्देश्य अपने तप को बढ़ाना होता है लेकिन अगर हम ब्रह्मांडीय ऊर्जा की बात करे तो ब्रह्माण्ड में जो प्रत्यक्ष प्रस्तुत जो ऊर्जा है उसको ग्रहण करना यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा कहलाती है | ब्रह्माण्ड में जो ऊर्जा मौजूद है उसको ब्रह्मांडीय ऊर्जा के नाम से संबोदित किया जाता है | कुण्डलिनी ऊर्जा के सम्बंद में बोला जाए तो ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तिया मनुष्य के भीतर प्राण शक्ति के रूप में मौजूद है, शास्त्र प्राण के सम्बंद में कहते है की प्राण ही जीवनी शक्ति है और प्राणो की जो केन्द्रीभूत शक्ति होती है उसको कुण्डलिनी शक्ति कहा गया है और यह शक्ति प्रत्येक मानव के भीतर निहित होती है, लेकिन यह ऊर्जा जागृत नहीं है | इसका स्थान मूलाधार चक्र (गुदा द्वार और लिंग के बीच में एक योनि मंडल है जिसको कंद स्थान कहते है उसी कंद स्थान के ऊपर इस शक्ति की की उपस्थिति बताई गई है) और यह शक्ति परमात्मा की शक्ति होती है जो साढ़े ३ कुण्डल मारकर कंद स्थान में बैठी रहती है | लेकिन कुण्डलिनी शक्ति की साधना स्वयं नहीं करनी चाहिए गुरु के निर्देशन में ही करना चाहिए |
३. देवो और आदि देवों मे क्या अंतर है ?
उत्तर:- शब्दों की मायाजाल में फसने की आवश्यकता नहीं है | जितना आप इस चीज़ को तोड़ कर देखेंगे उतना ही भटकते चले जायेंगे | सनातन धर्म अपने आप में बहुत विशाल है इसका अंतिम छोर कही दिखाए ही नहीं पढ़ता इसलिए आप स्वयं अनुमान लगा सकते है कितना विशाल होगा यह धर्म और जिसने जैसा देखा वैसा प्राप्त किया और उसी अनुसार वर्णन भी किया | अगर कोई जीवन भर भगवान शिव की ही तपस्या करता है तो निश्चित ही वह भगवान शिव को ही प्राप्त हो जाएगा | अगर हम अदि शिव की बात करे तो इसका तात्पर्य ये है की हम उस शिव के शरण में है जो सबसे पहले मौजूद था | जब सृष्टि की रचना भी नहीं हुई थी और उस समय जो शक्ति मौजूद थी वह रूद्र या आदि शिव के नाम के जानी जाती है |
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