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दंतेश्वरी मंदिर के प्रेत भाग 1

दंतेश्वरी मंदिर के प्रेत भाग 1

नमस्कार दोस्तों धर्म रहस्य चैनल पर आपका एक बार फिर से स्वागत है। आज हम लोग एक बार फिर से मठ और मंदिरों की कहानी को सुनने जा रहे हैं। एक ऐसे स्थान की कहानी जहां पर किसी समय प्रेतों का साम्राज्य था और कैसे यह एक विशिष्ट तांत्रिक स्थल में बदला इस कथा को जानेंगे। लेकिन इस मंदिर के संबंध में पूरी कथा और कहानी आज के वीडियो में हम समझेंगे। आखिर यह मंदिर है कहां? यह मंदिर!

देवी दंतेश्वरी को समर्पित है। मां सती के जब अंग कटकर सुदर्शन चक्र के माध्यम से गिर रहे थे तब देवी मां का दांत इस स्थान पर गिरा था, इसी कारण इस स्थान को दंतेश्वरी देवी कहा गया। जैसे की हम जानते ही हैं कि? दांत चबाने और खाने का कार्य करते हैं। इसी कारण यह विशेष रूप से तामसिक शक्ति के माध्यम से देवी के विशिष्ट स्वरूप को दर्शाता है। यह स्थान दंतेवाड़ा जगदलपुर तहसील छत्तीसगढ़ से 80 किलोमीटर दूर स्थित एक शहर है। दंतेवाड़ा के नाम पर देवी दंतेश्वरी का नाम रखा गया। यहां के काकतीय शासकों ने इस स्थान को बचाया और एक साम्राज्य बनाया था। यह बस्तर राज्य की कुल देवी के नाम से भी जानी जाती है।

आंध्र प्रदेश के वारंगल राज्य के प्रतापी राजा अन्नमदेव ने यहां देवी मां दंतेश्वरी और मां भुवनेश्वरी की स्थापना की थी। इस स्थान तक पहुंचने के बहुत सारे मार्ग है। दुर्ग, रायपुर और भुवनेश्वर और हावड़ा से जगदलपुर तक सीधी रेल सेवा जाती है। भूमिगत सुरंगों और प्रकृति के वादियों के बीच से अपना सफर तय करते बहुत ही सुंदर नजारा प्रस्तुत करती है। अब मां के 51 शक्तिपीठों में इसे 52 शक्तिपीठ भी माना जाता है। अब इस स्थान की कहानी के विषय में बात करते हैं। इससे आप जान सकते हैं कि माता कितनी अधिक दयालु और चमत्कारिक है।

वारंगल में मां भुवनेश्वरी माता पेदाम्मा के नाम से विख्यात थी। यहां की कथा के मुताबिक वारंगल के राजा रुद्र प्रताप देव। जब मुगलों के युद्ध में पराजित हो गए तो वह दर-दर जंगल में भटकने लगे। तब उन्होंने एक स्थान पर बैठकर अपनी कुलदेवी माता को याद किया और उनके मंत्रों का जाप किया क्योंकि अब ना तो उनके पास राज्य था। नहीं उनके पास सेना बची थी और ना ही कोई खजाना था। ऐसी अवस्था में उनके लिए जीवन चलाना बहुत ही कठिन हो गया था। उन्होंने सच्चे मन से माता की प्रार्थना की। तब कुलदेवी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि माघ पूर्णिमा के मौके पर वह घोड़े पर सवार होकर विजय यात्रा प्रारंभ करें। वह जहां तक जाएंगे वहां तक उनका राज्य स्थापित हो जाएगा। मैं स्वयं तुम्हारे पीछे चलूंगी, लेकिन याद रखना तुम्हें पीछे मुड़कर नहीं देखना है।

तो इस बात का संकेत देकर माता ने रूद्र प्रताप देव को। एक शक्ति और सिद्धि देने की कोशिश की। किंतु हम जानते ही हैं मनुष्य के अगर भाग्य और प्रारब्ध में पूरा ना होना हो तो वह गलती कर ही जाता है। वरदान के अनुसार राजा ने वारंगल के गोदावरी तट से उत्तर की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ की थी। राजा रूद्र प्रताप देव के अपने पीछे चली आ रही माता का अनुमान उन्होंने उनके पायल के घुंघरू की आवाज के साथ लगाना शुरू कर दिया। वह आगे बढ़ते चले गए।

जब राजिम त्रिवेणी पर पैरी नदी के तट की रेत पर देवी के पैरों के घुंघरू की आवाज रेत में दब जाने के कारण सुनाई पड़ना बंद हो गई। तब राजा ने सोचा क्या माता ने मुझे यही तक की जमीन सिर्फ प्रदान की है? उसके मन की शंका उनके लिए अब दुर्भाग्य बनने वाली थी। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। तब देवी मां ने गुस्से से उन्हें कहा, मैंने तुम्हें एक बात बताई थी कि कुछ भी हो जाए, पीछे मुड़कर नहीं देखना। पर तुमने मुझे देख लिया है अब मैं तुम्हारे साथ आगे नहीं चलूंगी।

राजा इस बात से दुखी हो गया। वह माता से प्रार्थना करने लगा और वहीं बैठकर माता की तपस्या शुरू करदी, माता एक बार फिर से शांत होकर पिघल गई। उन्होंने एक पवित्र वस्त्र देकर कहा कि यह? पवित्र वस्त्र जितनी भूमि ढकेगा वह तुम्हारा पूरा राज्य क्षेत्र बन जाएगा। इस प्रकार राजा ने वस्त्र फैलाकर जितनी भूमि को ढक पाया, वह पूरा क्षेत्र राजा का राज्य क्षेत्र बन गया क्योंकि उसे वस्त्र से ढका गया था। इसी कारण से इस जिले का नाम बस्तर पड़ा यानी वस्त्र।

तत्पश्चात देवी राजा रूद्र प्रताप के साथ वापस बड़े डोंगर तक आई और उन्होंने फिर राजा का राजतिलक स्वयं किया और फिर वह अंतर्ध्यान हो गई। फिर उन्होंने कहा, मैं तुम्हारे स्वप्न में आकर तुम्हें कुछ बताऊंगी कि मैं कहां प्रकट होकर स्थापित होंउगी। तब तुम मेरी पूजा अर्चना की व्यवस्था करना।

फरस गांव के निकट बड़े डोंगर में देवी दंतेश्वरी का प्राचीन मंदिर अवस्थित है। तत्पश्चात राजा रूद्र प्रताप देव ने राज्य की राजधानी ग्राम मधोता में स्थापित की एवं बाकी समय उनके अन्य वंशज राजा दलपत देव ने इसे जगदलपुर स्थानांतरित भी किया। आज भी राजवंश के नए सदस्य के राज्याभिषेक के लिए ग्राम मधोता से पवित्र सिंदूर लाकर राजतिलक किए जाने की परंपरा अभी भी विद्यमान है।

कुछ समय बाद राजा को माता दंतेश्वरी ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि मैं दंतेवाड़ा के शंकिनी और डंकिनी नदी के संगम पर स्थापित हूं। वहां मेरी स्वयं प्राकृतिक मूर्ति है जिसका निर्माण विश्वकर्मा द्वारा किया गया है। जाओ वहां मेरा मंदिर स्थापित करो!

इस प्रकार वहां पर माता की मंदिर को स्थापित किया गया। दंतेश्वरी मंदिर के पास ही शंखिनी और डंकिनी नदी के संगम पर मां दंतेश्वरी के चरण चिन्ह भी मौजूद है। यहां जाकर सच्चे मन से प्रार्थना करने पर मनोकामनाएं निश्चित रूप से पूर्ण होती है तो यह था माता दंतेश्वरी की कथा का मूल भाग अब हम जानेंगे। प्राचीन समय में किस प्रकार यहां पर माता दंतेश्वरी स्थापित हुई थी और प्रेतों के साथ उनका क्या रहस्य है?

यह स्थान प्राचीन समय में एक तांत्रिक की तपोभूमि था यहां पर। उस तांत्रिक के बहुत सारे शिष्य रहा करते थे क्योंकि तांत्रिक को यह बात पता चली कि यह स्थान माता के यहां पर आने को प्रदर्शित करता है। उसने अपने तंत्र साधना रहस्य के माध्यम से जाना कि माता का दांत यहां पर गिरा था। इसीलिए यह स्थान सिद्धि दायक स्थान है।

माता यहां पर अपने काली भयंकर स्वरूप में मौजूद है। साथ में शंखिनी और डंकिनी नाम की 2 योगिनी शक्तियां भी माता के साथ निवास करती है। माता अपनी एक स्वरूप में यहां पर जब विद्यमान थी तब विश्वकर्मा ने माता की प्रार्थना कर उनकी मूर्ति का निर्माण किया था। तांत्रिक को जब यह बात पता चली तो फिर उसने देवी दंतेश्वरी को सिद्ध करने और उनकी 2 योगिनी शक्तियों के माध्यम से। प्रबल सिद्धियां प्राप्त करने की चेष्टा शुरू कर दी।

साधना की कुछ दिनों के बाद अपने शिष्यों सहित जब तांत्रिक साधना कर रहा था तब वहां पर शंकिनी और डंकिनी नदी से प्रकट हुई। और उन्होंने कहना शुरू कर दिया सबसे पहले हमें बली दो।

बिना बली के हम तुम लोगों से सिद्ध नहीं होंगी। तांत्रिक ने सोचा कि मनुष्य की बलि देने से अच्छा है, किसी और की बलि दी जाये। उसके मन में एक ख्याल आया और उसने अपनी तंत्र सिद्धि से पता किया तो पता चला कि उस स्थान के पास ही। प्राचीन समय में विशालकाय प्रेतों की नगरी मौजूद है तो उसने अपने शिष्यों को प्रेतों को बांधने और पकड़कर लाने की विद्या बताई। उसने अपने शिष्य को इस कार्य के लिए भेजा।

उसका पहला शिष्य!

नदी पार कर एक स्थान पर पहुंचा जहां पर एक पेड़ पर एक शक्तिशाली प्रेत विराजमान था।

और उसने वहीं बैठ कर उसको बांधने की कोशिश करनी शुरू कर दी क्योंकि प्रेत की बलि देवी डंकिनी और शंकिनी को दिया जाना तय हुआ था।

प्रेत ने जैसे ही उस शिष्य को देखा और कहा कि तू मुझे पकड़ना और सिद्ध करना चाहता है ना? सुन, किसी कुंवारी कन्या को इस पेड़ के नीचे लाकर

मेरे को अर्पित कर। तभी मैं तुझसे सिद्ध होगा। आखिर प्रेत ने ऐसा क्यों कहा था जानेंगे अगले भाग में तो अगर आपको यह जानकारी और? किवदंती घटना पसंद आ रही है तो लाइक करें। शेयर करें, सब्सक्राइब करें। आपका दिन मंगलमय हो। धन्यवाद।

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