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अर्जुनकृत दुर्गा सिद्ध स्तुति

अर्जुनकृत दुर्गा स्तवनम् 

महाभारत युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने मां दुर्गा की उपासना की थीकौरवों की विशाल सेना देखकर अर्जुन चिंतित थे, तब माधव ने भगवती दुर्गा देवी की आराधना करने को कहा था । उस समय अर्जुन ने जिस स्तोत्र से भगवती दुर्गा का स्तवन किया था और जिस स्तवन से प्रसन्न होकर मां दुर्गा ने विजय का वरदान दिया था, वह अर्जुनकृत दुर्गास्तवन कहलाता हैयह बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली स्त्रोत हैइसके स्तवन से निराशा का भाव दूर होता है और व्यक्ति उत्साह से भर कर कठिन से कठिन कार्य करने के लिए तत्पर हो जाता है। संघर्षकाल में इस स्तवन की महत्ता और भी बढ़ जाती है 

इस स्तोत्र के माहात्म्य में लिखा है कि इसके पाठ से यक्ष, राक्षस, पिशाच, शत्रु, सर्पादि का भय, शासकीय संकट, शत्रु बाधा एवं मुकदमे दि में राजका भय माप्त हो जाता है तथा सर्वत्र विजय की प्राप्ति होती है। बंधन में पड़े जीव की मुक्ति हो जाती है, विवाद में विजय की प्राप्ति होती है, संग्राम में विजय, अतुलनीय संपदा, आरोग्य के साथ ही व्यक्ति बल, रूप-गुण आदि से संपन्न होकर शतायु होता है। 

प्रयोग विधियह स्तोत्र महाभारत के भीष्म पर्व में वर्णित हैइसकी साधना भगवती दुर्गा के मंदिर अथवा में एकांत में करनी चाहिएघी के दीपक में कुंकुम से रंगी हुई रूई का प्रयोग करेंनवरात्र काल में अथवा सर्वार्थ सिद्धि योग में इस अनुष्ठान का आरंभ करें। कुल 9 या 21 दिन पाठ करें तथा प्रतिदिन 9 या 21 बार आवृत्ति करेंपाठ के बाद दशांस हवन करेंलाल वस्त्र वं लाल सन का प्रयोग करेंसाधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है। नित्य ही दुर्गा-पूजा के साथ सप्तशती-पाठ करने के बाद उपरोक्त स्तवन के 31 पाठ प्रतिदिन यदि 1 महीने तक किए जाएं अथवा नवरात्र काल में 108 पाठ नित्य किए जाएं तो उपरोक्त ‘दुर्गास्तवनसिद्ध हो जाता हैफिर व्यक्ति इससे मनोवांछित कामना की पूर्ति कर सकता है। नवरात्रों में इस स्तोत्र का पाठ विशेष फलदायी होता हैविनियोग, विभिन्न न्यास करने के बाद मां दुर्गा का ध्यान करते हुए जप करना चाहिए 

श्रीअर्जुन उवाच 

श्री अर्जुन-कृत श्रीदुर्गा-स्तवन विनियोग – ॐ अस्य श्रीभगवती दुर्गा स्तोत्र मन्त्रस्य श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिः, अनुष्टुप् छन्द, श्रीदुर्गा देवता, ह्रीं बीजं, ऐं शक्ति, श्रीं कीलकं, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगः। ऋष्यादिन्यास- श्रीकृष्णार्जुन स्वरूपी नर नारायणो ऋषिभ्यो नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीदुर्गा देवतायै नमः हृदि, ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये, ऐं शक्त्यै नमः पादयो, श्रीं कीलकाय नमः नाभौ, मम अभीष्ट सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।
durga कर न्यास – ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्याम नमः, ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा, ॐ ह्रूं मध्यमाभ्याम वषट्, ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां हुं, ॐ ह्रौं कनिष्ठाभ्यां वौष्ट्, ॐ ह्रः करतल करपृष्ठाभ्यां फट्।
अंग-न्यास –ॐ ह्रां हृदयाय नमः, ॐ ह्रीं शिरसें स्वाहा, ॐ ह्रूं शिखायै वषट्, ॐ ह्रैं कवचायं हुं, ॐ ह्रौं नैत्र-त्रयाय वौष्ट्, ॐ ह्रः अस्त्राय फट्। ध्यान – सिंहस्था शशि-शेखरा मरकत-प्रख्या चतुर्भिर्भुजैः, शँख चक्र-धनुः-शरांश्च दधती नेत्रैस्त्रिभिः शोभिता। आमुक्तांगद-हार-कंकण-रणत्-कांची-क्वणन् नूपुरा, दुर्गा दुर्गति-हारिणी भवतु नो रत्नोल्लसत्-कुण्डला।। मानस पूजन – ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः यं वाय्वात्मकं धूपं घ्रापयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः रं वहृयात्मकं दीपं दर्शयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि। ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः सं सर्वात्मकं ताम्बूलं समर्पयामि।
श्रीअर्जुन उवाच – नमस्ते सिद्ध-सेनानि, आर्ये मन्दर-वासिनी, कुमारी कालि कापालि, कपिले कृष्ण-पिंगले।।1।। भद्र-कालि! नमस्तुभ्यं, महाकालि नमोऽस्तुते। चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं, तारिणि वर-वर्णिनि।।2।। कात्यायनि महा-भागे, करालि विजये जये, शिखि पिच्छ-ध्वज-धरे, नानाभरण-भूषिते।।3।। अटूट-शूल-प्रहरणे, खड्ग-खेटक-धारिणे, गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे, नन्द-गोप-कुलोद्भवे।।4।। महिषासृक्-प्रिये नित्यं, कौशिकि पीत-वासिनि, अट्टहासे कोक-मुखे, नमस्तेऽस्तु रण-प्रिये।।5।। उमे शाकम्भरि श्वेते, कृष्णे कैटभ-नाशिनि, हिरण्याक्षि विरूपाक्षि, सुधू्राप्ति नमोऽस्तु ते।।6।। वेद-श्रुति-महा-पुण्ये, ब्रह्मण्ये जात-वेदसि, जम्बू-कटक-चैत्येषु, नित्यं सन्निहितालये।।7।। त्वं ब्रह्म-विद्यानां, महा-निद्रा च देहिनाम्। स्कन्ध-मातर्भगवति, दुर्गे कान्तार-वासिनि।।8।। स्वाहाकारः स्वधा चैव, कला काष्ठा सरस्वती। सावित्री वेद-माता च, तथा वेदान्त उच्यते।।9।। स्तुतासि त्वं महा-देवि विशुद्धेनान्तरात्मा। जयो भवतु मे नित्यं, त्वत्-प्रसादाद् रणाजिरे।।10।। कान्तार-भय-दुर्गेषु, भक्तानां चालयेषु च। नित्यं वससि पाताले, युद्धे जयसि दानवान्।।11।। त्वं जम्भिनी मोहिनी च, माया ह्रीः श्रीस्तथैव च। सन्ध्या प्रभावती चैव, सावित्री जननी तथा।।12।। तुष्टिः पुष्टिर्धृतिदीप्तिश्चन्द्रादित्य-विवर्धनी। भूतिर्भूति-मतां संख्ये, वीक्ष्यसे सिद्ध-चारणैः।।13।। ।।
फल-श्रुति ।। यः इदं पठते स्तोत्रं, कल्यं उत्थाय मानवः। यक्ष-रक्षः-पिशाचेभ्यो, न भयं विद्यते सदा।।1।। न चापि रिपवस्तेभ्यः, सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः। न भयं विद्यते तस्य, सदा राज-कुलादपि।।2।। विवादे जयमाप्नोति, बद्धो मुच्येत बन्धनात्। दुर्गं तरति चावश्यं, तथा चोरैर्विमुच्यते।।3।। संग्रामे विजयेन्नित्यं, लक्ष्मीं प्राप्न्नोति केवलाम्। आरोग्य-बल-सम्पन्नो, जीवेद् वर्ष-शतं तथा।।4।।
प्रयोग विधि – उक्त स्तोत्र ‘महाभारत’ के ‘भीष्म पर्व’ से उद्धृत है जिसमे गीता का भी उपदेश हुआ है । इसकी साधना भगवती के मन्दिर अथवा घर में एकान्त में करनी चाहिये। ‘घी’ के दीपक में बत्ती के लिये अपनी नाप के बराबर रूई के सूत को 5 बार मोड़कर बांटे तथा बटी हुई बत्ती को कुंकुम से रंगकर भगवती के सामने दीपक जलायें। नवरात्र या सर्व सिद्धि योग से पाठ का प्रारम्भ करें कुल 9 या 21 दिन पाठ करें तथा प्रतिदिन 9 या 21 बार आवृत्ति करें। पाठ के बाद हवन करें। लाल वस्त्र तथा आसन प्रशस्त है। साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन करें। इससे सभी प्रकार की बाधाएं समाप्त होती है तथा दरिद्रता का नाश होता है। शासकीय संकट, शत्रु बाधा की समाप्ति के लिये अनुभूत सिद्ध प्रयोग है। २॰ नित्य दुर्गा-पूजा (सप्तशती-पाठ) के बाद उक्त स्तव के ३१ पाठ १ महिने तक किए जाएँ। या नवरात्र काल में १०८ पाठ नित्य किए जाएँ, तो उक्त “दुर्गा-स्तवन” सिद्ध हो जाता है।
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