नमस्कार दोस्तों धर्म रहस्य आयुर्वेद में आपका एक बार फिर से स्वागत है। आज हम लोग बात करेंगे। आयुर्वेद के अनुसार दिन भर की गतिविधियों को कैसे व्यवस्थित किया जाए। इसी को हम आयुर्वेद में दैनिक दिनचर्या कहते हैं। बहुत ही साधारण भाषा में आज मैं आपको समझा लूंगा कि किस प्रकार से आयुर्वेद के मतानुसार दिन भर की गतिविधियों को यानी की दिनचर्या को करना चाहिए। तो सबसे पहले हम जानते हैं कि आयुर्वेद में इसके संबंध में कहा जाता है?अष्टाङ्गहृदयम् के सूत्रपाठ में दिनचर्या, रात्रि भोजन, ऋतुचक्र का वर्णन है। दीनाचार्य से तात्पर्य आहार, विहार और आचरण के नियमों से है। सूत्रपाठ में दिनचर्या, रात्रि भोजन, ऋतुचक्र का वर्णन है। दिनचर्या से तात्पर्य आहार, विहार और आचरण के नियमों से है।के सूत्रपाठ में दिनचर्या, रात्रि भोजन, ऋतुचक्र का वर्णन है। दिनचर्या से तात्पर्य आहार, विहार और आचरण के नियमों से है।
आहार-विहार और आचरण के जो नियम होते हैं उनसे संबंधित जिसमें प्रातः उत्थान, मल त्याग , दंत, धावन, नस्य, मुँहधावन क्रिया, अभ्यंग, व्यायाम, स्नान, भोजन, सद वृत्तियां, निद्रा लेना इत्यादि सम्मिलित होता है। तो सबसे पहले जानते हैं कि हमें सबसे पहले उठकर क्या करना चाहिए?
सबसे पहले आप ब्रह्म मुहूर्त में उठें। हालांकि आज के बिजी माहौल में देर रात तक लोगों को कार्य करना पड़ता है। इसलिए ब्रह्म मुहूर्त में उठना संभव नहीं हो पाता है। किंतु आयुर्वेद के मतानुसार अगर आपको जीवन में स्वस्थ रहना है तो ब्रह्म मुहूर्त में उठने की आदत डालनी चाहिए। एक डेढ़ घंटे पूर्व का जो वातावरण होता है, इसी को हम ब्रह्म मुहूर्त का समय कहते हैं।
जिस प्रकार परमात्मा के संसार उत्पत्ति के समय सब कुछ शांत सुंदर और स्थिर होता है, उसी प्रकार ब्रम्ह मुहूर्त का समय माना जाता है। यह समय ध्यान ज्ञान स्वाध्याय के लिए सबसे अच्छा माना जाता है। इसके समय में निद्रा की जो कमी है जिसकी वजह से तमोगुण रजोगुण बढ़ा हुआ होता है, वह हट जाता है और केवल और केवल सत्व गुण इस वक्त बढ़ता है। इसके बाद आप जब इस समय उठेंगे तो सबसे पहले देखेंगे कि आपकी कौन सी नासिका चल रही है? यानी कि आपकी नाक में किस में हवा बह रही है, हवा अंदर जा रही है, बाहर आ रही है।
दाहिनी नासिका सूर्यपुत्र कहलाती है और बाएं नासिका जो है, वह चंद्र पुत्र कहलाती है। मस्तक का जो दाहिना भाग होता है वह रचनात्मक कार्यों को नियंत्रित करता है और शरीर का जो बाया हिस्सा है वह तार्किक और मौखिक कृतियों को नियंत्रित करता है। ऐसा पता चला है कि जब कोई अपनी बाईं नाक से सांस लेता है तो मस्त का दाहिना भाग हावी होता है और जब दूसरी तरफ से करता है तो उसके विपरीत का भाग।
इस प्रकार इस समय प्राण वायु ऑक्सीजन की वातावरण मात्रा अधिक होने के कारण इस वक्त उठना उत्तम माना जाता है। उसके बाद दूसरा कार्य होता है सुबह उठ कर पानी पीना। इससे शरीर के विषैले पदार्थ शरीर से बाहर निकल जाते हैं। पाचन तंत्र , आपका नियमित हो जाता है। समय से पूर्व बालों के सफेद होना, झुर्रियां आना यह सब भी रुकता है और हो सके तो आप गर्म पानी का सेवन कीजिए। ठंडे पानी का सेवन से बचना चाहिए ताकि आपके शरीर के अंदर के जितने भी विषैलेऔर बुरे पदार्थ हैं, जिनकी वजह से शरीर में भविष्य में रोग बनने की संभावनाएं हैं, वह सारी हट जाए।
इन दोनों कार्यों को करने के बाद मन को एकाग्र चित्त कर लेना चाहिए और एक बार ईश्वर का ध्यान अवश्य करना चाहिए। इसके बाद ही अपने दैनिक दिनचर्या को शुरू करना चाहिए। इसे हम ईष्ट स्मरण कहते हैं। इसके बाद मल मूत्र उत्सर्जन किया जाता है। शरीर में उपापचय के फल स्वरुप बने अवशिष्ट और विषैले तत्वों को शरीर से बाहर निकालने की जो विधि है उसको हम मल मूत्र त्याग कहते हैं।
प्रातः काल! शरीर इससे हल्का बन जाता है और शरीर स्वस्थ महसूस करने लगता है। हाथ पैर भली प्रकार साफ कर लेनी चाहिए जिससे किसी भी प्रकार का भविष्य में संक्रमण न हो । मल मूत्र के बाद आप दंत धावन प्रक्रिया करते हैं यानी कि आपको अपने दांत साफ करने हैं जिससे मुंह की गंदगी नष्ट हो जाए। अपनी जीभ को साफ कर लेते हैं। इससे आप दिनभर स्वादिष्ट भोजन या स्वादिष्ट चीजों का स्वाद ले सकें।
इसके बाद मुखादिधावन नामक एक प्रक्रिया को आप करना पड़ता है। इसमें लोध्र-आमलक आदि को उबालकर पानी में आंखें धोनी चाहिए। इससे इस निष्क्रियता दूर होती है। मुंहासे झाइयां यह सब नहीं आते। चेहरा आपका कांतिमय हो जाता है और आपके शरीर में नेत्र ज्योति बढ़ती है। इसके उपरांत अंजन किया जाता है।
नेत्र ज्योति से बढ़ती है, आंखों के रोग नहीं होते। नेत्र सुंदर और आकर्षक बनते हैं। इसके बाद एक ऐसी प्रक्रिया आती है जिसको नस्य कहते हैं। हालांकि आजकल इसका इस्तेमाल कोई भी नहीं करता। लेकिन यह बहुत ही अच्छा एक आयुर्वेदिक प्रयोग होता है। इसमें सुबह-सुबह दो से तीन बूंद गर्म करके ठंडा किया हुआ सरसों का या फिर तिल का तेल नाक में डालना चाहिए। इसे नाक में डालने से सिर आंख और कान के रोग नहीं होते हैं। आपकी आंखों की ज्योति बढ़ जाती है। बाल काले होते हैं और समय से पूर्व झड़ने और सफेद होने की जो दुर्गुण हैं, वह रोकता है।
उसके बाद फिर अभ्यंग किया जाता है। अभ्यंग में शरीर पर तेल मालिश करवाई जाती है। यानी कि आप को नहाने से पहले अपने शरीर को पूरी तरह से तेल की मालिश करनी चाहिए। इससे क्या होता है कि आपकी त्वचा कोमल हो जाती है, कांति युक्त हो जाती है। राग रहित रहती है। त्वचा में रक्त संचार बढ़ जाता है। विषैले तत्व शरीर से बाहर निकलते हैं और त्वचा में झुर्रियां भी नहीं पड़ती हैं। अभ्यंग यानी स्नान के पहले किया जाने वाला तेल मालिश का क्रम के तुरंत बाद आप व्यायाम करेंगे। व्यायाम में आपको सूर्य नमस्कार योग की विभिन्न प्रकार की मुद्राएं करना, दैनिक व्यायाम करना और शारीरिक क्षमता अनुसार अपना व्यायाम करना। इसमें? शारीरिक रोग प्रतिरोधक क्षमता जो है, वह बढ़ जाती है। शरीर के जितने स्रोत हैं, उनकी सुधि होती है।
अवशिष्ट पदार्थ शरीर से बाहर निकलते हैं और अतिरिक्त चर्बी जो शरीर में बन रही वह घट जाती है। उसके बाद क्षौरकर्म करना चाहिए। दाढ़ी मूछ बनवाना, बाल कटवाना नाखून कटवाना। यह सब चीजें करनी पड़ती है। उसके बाद आप उद्द्वर्तन करते हैं। यानी उबटन का प्रयोग करते हैं। यह विशेष रूप से इंद्रियों के लिए बताया गया है। इसमें विभिन्न पदार्थों का लेप और उबटन करने से शरीर की दुर्गंध दूर होती है। मन में प्रसन्नता और स्फूर्ति आती है उससे शरीर की जो अतिरिक्त वसा है, वह नष्ट हो जाती है।
पथरी के लक्षण कारण उपचार भाग 2
त्वचा मुलायम और चमकदार होती है। और विभिन्न प्रकार के मुंहासे झाइयां बगैराह नहीं होते। यह सारी चीजें कर लेने पर अगर आपने अभी तक स्नान नहीं किया है तो अब आप स्नान भी कर सकते हैं। इन चीजों को करने के पहले कई लोग स्नान कर लेते हैं। लेकिन इन सब के बाद किया गया स्नान और भी उत्तम माना जाता है। तो इससे शरीर की सभी प्रकार की अशुद्धियां दूर हो जाती हैं। गहरी नींद आती है। शरीर की उष्मा, दुर्गंध, पसीना, खुजली, प्यास यह समस्या जिससे पैदा होने वाली है। वह सब नष्ट होते हैं। रक्त का शोधन होता है और भूख बढ़ती है।
इसके बाद कहते हैं, वस्त्रों को धारण करना चाहिए और इससे आपके अंदर सुंदरता, प्रसन्नता और आत्मविश्वास की वृद्धि होती है। धूप! से बचाव करना चाहिए। सीधी सूर्य किरण से जितना हो सके अपने शरीर का बचाव करना चाहिए। त्वचा को सीधे सूर्य की किरणों के संपर्क में आने से बचाने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए आजकल बहुत अच्छा है आप सनस्क्रीन लोशन वगैरह लगा ले । इसके बाद आप? दिन के जो दैनिक कार्यों को करते हुए अंततोगत्वा रात्रि के समय में आपको पहले भजन करना आवश्यक हो जाता है।
पूजा पाठ या मंत्र जाप शाम का आवश्यक है। उसको करने के बाद में फिर आप भोजन करने जाएं। भोजन करने के थोड़ी देर बाद आप टहलने के कुछ देर बाद ही जाकर आप निद्रा लें। कहते हैं ग्रीष्म ऋतु के अतिरिक्त सभी ऋतु में रात्रि में लगभग 6 से 8 घंटे की नींद आवश्यक रूप से लेनी चाहिए। निद्रा लेने से शारीरिक और मानसिक थकान दूर हो जाती है। शरीर में जो भोजन होता है वह सामान्य रूप से सही प्रकार से पचता है।
शरीर में नई ऊर्जा का संचार होता है। निद्रा शरीर की सम्यक वृद्धि और विकास के लिए आवश्यक मानी जाती है। आगे की पोस्ट मे मै ऋतु चर्या दूंगा। ताकि आपको समझ में आ सके कि कौन सी ऋतु में कौन से समय में आपको क्या चीज खानी चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए। इसको हम ऋतुचर्या के नाम से आयुर्वेद में जानते हैं। आज मैंने बहुत ही सरल भाषा दिनचर्या को बताया है । हालांकि बहुत से इसमें ऐसे कर्म है जो निश्चित रूप से नहीं जोड़े गए हैं। वह परिस्थितियों के हिसाब से होता है, लेकिन यह चीजें जो मैंने बताई हैं सामान्य कर्म है।
आयुर्वेद के हिसाब से जो प्रत्येक मनुष्य को करनी चाहिए और बाकी जो दैनिक कार्य होते हैं, वह तो आपको करना ही है क्योंकि जीवन चलाना है, लेकिन इनका आवश्यक रूप से रोज व्यवहार करना चाहिए ताकि आपका शरीर स्वस्थ रहें क्योंकि यहां पर बात पूरी तरह से शरीर की ही हो रही है। शरीर को स्वच्छ रखने की हो रही है और शरीर को निरोगी बनाए रखने की बात की जा रही है ।
अगली पोस्ट मे हम ऋतु चर्या पर लेंगे ताकि हम जान सके कि किसी ऋतु में किस प्रकार से जीवनयापन करना चाहिए, क्योंकि आयुर्वेद में ऋतु समय को शरद, हेमंत, शिशिर, बसंत, ग्रीष्म ऋतु को बांटा गया है और उसी अनुसार बीमारियां भी शरीर में आती हैं। मनुष्यों को विभिन्न प्रकार की चर्चाओं को करना चाहिए जिससे उनके शरीर में रोग उत्पन्न ना हो यदि आपको यह पोस्ट पसंद आया है शेयर करें आपका दिन मंगलमय हो। धन्यवाद।