नमस्कार दोस्तों धर्म रहस्य चैनल पर आपका एक बार फिर से स्वागत है। मंदिरों और मठों की कहानियां एक बार फिर से मैं आप लोगों के लिए लेकर के आया हूं और आज जिस महान मंदिर के विषय में मैं बताने जा रहा हूं, यह कालीमठ मंदिर के नाम से जाना जाता है। यहां पुराने समय में ही मठ स्थापित था । यह स्थान देवभूमि उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ की चोटियों से घिरे हिमालय में सरस्वती नदी के किनारे स्थित सिद्ध पीठ श्री कालीमठ मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह एक महान सिद्धपीठ है और मां भगवती काली को समर्पित है। स्कंद पुराण के अंतर्गत केदारनाथ के 62 में अध्याय में इस मंदिर का वर्णन देखने को मिलता है। यही वह स्थान है जहां पर चट्टान पर काली शिला के रूप में माता काली के पैरों के निशान पूरी चट्टान के ऊपर आज भी मौजूद है। यह स्थान पर कहते हैं कि मां दुर्गा ने शुंभ निशुंभ और रक्तबीज दानव का वध किया था। यहां पर 12 वर्ष की बालिका के रूप में प्रकट हुई थी। काली शिला में देवी देवताओं के 64 यंत्र है। यहां पर चौसठ योगिनी विचरण करती हैं। इसीलिए यह कथा दो दिव्य योगनियों पर आधारित है।
कथा मिलती है कि देवताओं ने इसी स्थान पर माता से प्रार्थना की थी कि वह शुंभ निशुंभ के अत्याचारों से उनकी रक्षा करें। तब मां ने प्रकट होकर असुरों को नष्ट किया था। क्रोध में भर जाने पर देवी मां का रूप काला हो गया था और इसी काली स्वरूप में उन्होंने रक्तबीज का वध भी किया था। तब उन्होंने विशालकाय रूप धारण किया था और इस विशालकाय रूप में उन्होंने जब अपना पैर शिला पर रखा तो उससे उनके पैर का निशान बन गया था। मैं इस वीडियो के माध्यम से आपको उस शीला के दर्शन और मंदिर के दर्शन भी करवा रहा हूं। ताकि आप समझ सके कि कैसे इस शिला पर? मां जगदंबा ने अपना पैर धरा था और आज भी उनके पैरों के दर्शन आप इस स्थान पर जाकर कर सकते हैं। कालीमठ मंदिर के समीप रक्तबीज का वध उन्होंने किया था और रक्तबीज शीला आज भी इस स्थान पर स्थित है। इसी शिला पर माता ने उसका सिर रखा था। रक्तबीज शिला वर्तमान समय में आज भी मंदिर के निकट नदी के किनारे स्थित है। इस प्रकार से यह एक दिव्य स्थान है। यही नहीं दानवों के वध करने के बाद मां काली यहां से अंतर्ध्यान जब हो गए तो इस मंदिर की पुनर्स्थापना शंकराचार्य जी ने की थी।
गांव कालीमठ मूल रूप से अभी भी गांव कवल्था था के नाम से जाना जाता है। यह भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण लेखक कालिदास का साधना स्थल भी रहा है। कहते हैं इसी दिव्य स्थान पर कालिदास ने मां काली को प्रसन्न कर विद्वता को प्राप्त किया था। इसके बाद कालीमठ मंदिर में विराजित मां काली के आशीर्वाद से ही उन्होंने अनेकों ग्रंथ लिखे थे, जिनमें से संस्कृत में लिखा हुआ ग्रंथ मेघदूत जो बहुत ही अधिक अभी भी प्रसिद्ध है। उसे यहीं पर रचा गया था। रुद्रपुर नाम के राजा की ओर से यहां पर शिलालेख स्थापित किए गए थे जो ब्राम्ही लिपि में लिखे गए कहते हैं। यह स्थान मां के चरणों के लिए प्रसिद्ध है और इसी स्थान पर भगवान शिव ने मां काली के क्रोध को शांत भी किया था। इस प्रकार आप समझ सकते हैं कि यह एक अत्यंत ही गोपनीय स्थल है और इस स्थल को घूमने वाला या जाने वाला व्यक्ति समझ सकता है कि यहां पर माता काली की दिव्य स्वरुप के दर्शन उसे अवश्य ही प्राप्त हो रहे हैं। काली शिला पर उनकी चरण चिन्ह तो अभी भी मौजूद है। उनका रूप कितना अधिक विशालकाय रहा होगा। आप काली शिला के इस फोटो के माध्यम से देख सकते हैं और मंदिर के भी दर्शन कर सकते हैं। अब आते हैं उस मूल कथा पर जो इस स्थान पर घटित हुई थी। यह स्थान बहुत पहले से ही प्रसिद्धि प्राप्त किया था। शंकराचार्य से भी पहले इस स्थान पर कई तपस्वी और मुनि साधना करने आया करते थे और उनका मूल उद्देश्य जगदंबा काली को प्रसन्न करना होता था। मां को प्रसन्न करने के लिए इस स्थान पर बैठकर वर्षों की तपस्या ऋषि मुनि किया करते थे।
वैसे ही एक ऋषि सुंदर नाम के। इस स्थान पर आए और उन्होंने इस स्थान पर आकर माता काली को प्रसन्न करने के लिए साधना शुरू की कहते हैं क्योंकि यह स्थान बहुत ही दिव्य था और मां की शक्तियों से भरा हुआ था।और इस स्थान की आज भी यह विशेषता है कि इस स्थान पर कोई मूर्ति नहीं है। केवल यंत्र जो है उसकी स्थापना और पूजा की जाती है। तो आप समझ सकते हैं उस दौरान भी मां के महान स्वरूप और प्रकाश ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए। उस सुंदर नाम के एक ऋषि ने। यहां पर सब करना प्रारंभ कर दिया। एक दिन वह जाप कर रहे थे। अचानक से ही उन्हें आकाश से बहुत ही तीव्र आवाजें सुनाई देने लगी। वह इन आवाजों को सुनकर अपने ध्यान से भटक गए। तभी उन्होंने अपनी आंखें खोली और सामने का एक दिव्य नजारा दिखा। उन्होंने देखा आकाश से दो अत्यंत ही सुंदर कन्याएं पृथ्वी की ओर नीचे आकाश मार्ग से आ रही थी। उन्हें देखकर उनको लगा यह शायद कोई अप्सराएं हैं। उनका मन हुआ क्यों ना मैं इनका पीछा कर इनका रहस्य जानू।इसलिए उन्होंने अपनी साधना त्याग दी और उन दिव्य कन्याओं के पीछे जाने की कोशिश करने लगे। वह कन्या धीरे-धीरे आकाश से नीचे उतर कर एक पेड़ के नीचे आकर खड़ी हो गई ।
दोनों अत्यंत ही प्रसन्नता इसके बाद वह पास ही बह रही एक पहाड़ी नदी में खड़ी हो गई और उन्होंने एक दूसरे पर जल फेंकना शुरू कर दिया। दोनों काफी प्रसन्न न थी। यह देखकर ऋषि का मन हुआ कि वह उनके पास जाए और उसने। उनके पास जाना। उचित समझा वह चल दिए उनके पास जाने।जैसे ही वह उनके पास गए। अचानक से ही वहां पर एक शेर आकर खड़ा हो गया। उस शेर को देखकर ऋषि सुंदर बहुत अधिक घबरा गए। वह तीव्र स्वर से गर्जना करने लगा। उसके भय के कारण और इस पर स्थिति से बचने के लिए उन्होंने माता जगदंबा काली के मंत्रों का उच्चारण करना शुरू कर दिया। तभी अचानक से वह दोनों कन्या है, वहां पर आ गई। उन्होंने उस ऋषि को कहा, आप डरिए नहीं, यह हमारी रक्षा में नियुक्त है। और उन्होंने उस शेर के सिर पर हाथ रखा और चमत्कार हो गया। वह शेर एकदम से शांत हो गया। उसकी इस प्रकार की हरकत को देखकर ऋषि को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा कि आपका यह शेर शांत कैसे हो गया है? आप दोनों बहुत ही अधिक सुंदर हैं। आपकी सुंदरता देखकर मैं यहां तक चला आया कि आप लोग कौन हैं? इतना ही कहना था कि अचानक से शेर क्रोध में एक बार फिर से भर गया। दोनों कन्याएं। अग्नि प्रज्वलित करने लगी। यह देखकर अब ऋषि अत्यधिक घबरा गए। आगे क्या हुआ हम लोग जानेंगे। अगले भाग में तो अगर आपको कालीमठ मंदिर और इससे जुड़ी हुई दिव्य कहानी पसंद आ रही हो तो लाइक करें। शेयर करें, सब्सक्राइब करें। आपका दिन मंगलमय हो। धन्यवाद।